SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १७३ माण्यप्रसक्तः । अथाऽनिश्चितार्थाध्यवसायादनुमानस्यानधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् प्रामाण्यम्, निश्चितो ह्यध्यक्षविषयः, क्षणक्षयस्य चाऽनिश्चयादध्यक्षतो न तद्विषयत्वम् । नन्वेवमध्यक्षानुसारिविकल्पस्याप्यनिश्चितार्थाध्यवसायित्वात् क्षणक्षयानुमानवत् प्रामाण्यप्रसक्तिः ।। __ अपि च, विकल्पाऽनुमानविषयार्थयोः समः विषमो वा प्रतिभासोऽभ्युपगम्येत ! यदि विषमः कथमसहशप्रतिभासयोस्तयोरभेदः ? अभिन्नाकारावभासि च कथं शब्दस्य रूपम् ? अथ समः, विकल्पेषु को विद्वेषः तानविषयीकुर्वतः । अथ यत्रांशे निश्चयोत्पादनसमर्थ प्रत्यक्षं तत्र प्रतिभासाऽविशेषेऽपि प्रत्यक्षगृहीतांशग्राहितया विकल्पो न प्रमाणम् अनुमानं त्वगृहीतार्थाधिगन्तृत्वात् प्रमाणम्, तद्विषयेऽर्थेऽध्यक्षस्य निश्चयोत्पादनाऽसामर्थ्यात् । ननु कथमेकमनुभवज्ञानं स्वार्थे निश्चयोत्पत्तौ समर्थमसमर्थ चोपपद्यते विरोधात् एकाकाराऽविशेषाच्च ? न चाविशेषेऽपि तस्यैकत्र सामर्थ्यमेवाऽपरत्राऽसामर्थ्यम्, परेण संनिकर्षेऽप्येवं हो सके । फलत: क्यों इस को स्वतन्त्र प्रमाण न माना जाय ? "यह तो विकल्परूप है और विकल्प तो गृहीतग्राही होने से प्रमाण ही नहीं होता'' - ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि विकल्प का कारण निर्विकल्प प्रत्यक्ष होता है, जब कि यह तो उस के विना ही साक्षात् बाह्यार्थ के संनिधान(= संनिकर्ष) रूप बल पर खडा हुआ है। (अगर आप को यहाँ पहले दूरस्थ वृक्ष का निर्विकल्प प्रत्यक्ष मान्य है तब तो विवाद ही समाप्त हो जाता है और अस्पष्टावभासी होने से उसमें स्वलक्षणविषयता के लोप की आपत्ति ज्यों की त्यों रहेंगी ।) यदि यह कहा जाय कि - "यद्यपि दूरस्थवृक्षज्ञान प्रत्यक्षपूर्वक नहीं है तथापि पहले कभी वह वृक्ष स्वलक्षण अध्यक्ष से गृहीत रहा है और अब दूर से उस का अध्यवसाय किया जा रहा है, अत: गृहीताध्यवसायी होने से वह अप्रमाण हो जाने की आपत्ति आयेगी क्योंकि शब्द भी अध्यक्ष का विषय पहले हो जाने पर बाद में वहाँ अनुमान की प्रवृत्ति होती है अत: वह भी गृहितग्राही ही है । यदि ऐसा कहें कि - 'प्रत्यक्ष का शब्दात्मक विषय अध्यक्ष से निश्चित है किन्तु उस की क्षणिकता निश्चित नहीं है अत: अगृहीत क्षणिकत्व का ग्राहक अनुमान अप्रमाण नहीं बनेगा।' - ऐसा कहने पर तो क्षणिकत्व के अनुमान की तरह प्रत्यक्षपूर्वक होने वाला विकल्प भी प्रमाण बन जायेगा, क्योंकि उस का भी सामान्यलक्षण विषय अध्यक्षनिश्चित नहीं होता है अत: विकल्प भी अगृहीतार्थाध्यवसायी ही है। ★ विकल्प में प्रामाण्य दर्निवार * यह भी विचारने जैसा है कि विकल्पविषयभूत अर्थ और अनुमानविषयभूत अर्थ, दोनों का प्रतिभास सम होता है या विषम होने का मानते हैं ? विषम मानते हैं तब प्रतिभास असदृश होते हुए उन दोनों को समानविषयक यानी सामान्यविषयक कैसे माना जा सकता है ? और शब्द का स्वरूप भी अन्यापोहात्मक सामान्यावभासी के बदले अनुमान से विषम यानी भिन्नाकार अवभासी कैसे हो सकता है ? यदि दोनों का प्रतिभास सम होने का मानते हैं तब अनुमान की तरह विकल्पों को भी प्रमाणक्षेत्र अन्तर्गत समावेश करने के बदले उन को उस से आप बहार क्यों कर रहे हैं - क्या विद्वेष है आप को विकल्पों के ऊपर ? (विषय = प्रमाणक्षेत्र) । यदि कहें - "प्रत्यक्ष जिस अंश का निश्चय उत्पन्न करने में सक्षम है उस अंश का प्रतिभास यद्यपि विसदृश नहीं है फिर भी विकल्प तो प्रत्यक्ष से गृहीत उस अंश का ग्राहक होता है इस लिये वह अप्रमाण है । जब कि अनुमान तो प्रत्यक्ष से अगृहीत अर्थ का ग्राहक होता है; इसलिये वह प्रमाण है; यहाँ अर्थ प्रत्यक्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy