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________________ १७२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नाध्यवसायात्, स्वलक्षणविषयत्वं च विकल्पानां सर्वतो व्यावृत्ताकाराध्यवसायिनां प्रसज्यते । तथाहि - इदमेव स्वलक्षणगोचरत्वमध्यक्षस्य यत् तस्य नियतरूपानुकरणम् सर्वतो व्यावृत्ताकारग्राहिणां विकल्पानामपि चेद् इदमस्ति, कथं स्वलक्षणविषयत्वम् ? अथाऽविशदावभासित्वादस्याऽस्वलक्षणविषयत्वम् । ननु दूरव्यवस्थितपादपादिस्वरूपग्राह्यध्यक्षमप्यविशदावभासमिति स्वलक्षणविषयत्वं तस्यापि न स्यात् । अथाऽयथार्थाकारग्राहिणस्तस्य भ्रान्तत्वादिष्टमेवाऽस्वलक्षणविषयत्वम् । न, तस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तेः । तथाहि - अनधिगतार्थाधिगमाऽविसंवादाभ्यां तस्य प्रामाण्यम्, न च प्रत्यक्षत्वम् भ्रान्तत्वाभ्युपगमात् । नाप्यनुमानत्वम् अलिङ्गजत्वात् । प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तस्य चापरस्य प्रमाणस्याऽनिष्टेः कथं नास्य प्रमाणान्तरत्वम् ? न च विकल्पः येनाधिगतार्थाधिगमादप्रमाणम् विकल्पकारणमन्तरेणापि बाह्यार्थसंनिधिबलेनोपजायमानत्वात् । न चाध्यक्षविषयीकृतस्वलक्षणाध्यवसायित्वादस्याऽप्रामाण्यम्, तथाभ्युपगमेऽध्यक्षेक्षितशब्दविषये क्षणक्षयानुमानस्याप्यप्रा और निर्विकल्पप्रकाशित विषय को विकल्प प्रत्यक्ष प्रमाणित करता है अत: निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही अक्षणिकव्यावृत्ति के रूप में क्षणिकत्व का ग्राहक हो जायेगा, फिर क्षणिकत्व के लिये अनुमान की जरूरत नहीं रहेगी । उपरांत, बौद्ध तो सविकल्पज्ञान को सामान्यलक्षण पदार्थग्राही मानता है, अब तो सर्वतो व्यावृत्ति का अध्यवसायी होने के कारण विकल्प को निर्विकल्प के समान ही स्वलक्षणग्राही मानना पडेगा । ऐसा इस लिये कि निर्विकल्प का स्वलक्षणविषयत्व यही है कि स्वलक्षण को नियत = व्यावृतरूप से ग्रहण करना । सर्वतो व्यावृत्ताकारग्राही विकल्प भी ऐसा ही है, तब वह स्वलक्षणसमान विषयग्राही क्यों न होगा ? * अविशद अवभास में स्वलक्षणविषयत्वनिषेध अशक्य ★ यदि यह कहें कि – 'सर्वतो व्यावृत्ताकार का ग्राहक विकल्प है किन्तु वह निर्विकल्प की तरह स्पष्टावभासी नहीं है अत: वह स्वलक्षणविषयक बन जाने की आपति नहीं होगी।' - तो इस पर भी यह आपत्ति आयेगी कि दूर रहे हुए वृक्षादि स्वलक्षण के स्वरूप का ग्रह करने वाला जो निर्विकल्प है वह भी दूरत्व के कारण स्पष्टावभासी न होने से उस का स्वलक्षणविषयत्व लुप्त हो जायेगा। यदि ऐसा कहें - 'दूर रहे हुए वृक्षादि को ग्रहण करने वाला ज्ञान यथार्थआकारग्राही न होने से (आम्र-निम्बादि वृक्ष का जो यथार्थआकार है उस का ग्राहक न होते हुये सिर्फ वृक्षाकारग्राही होने से) हम उसे भ्रान्त मानते हैं । अत: उस में आम्रादिस्वलक्षणविषयता का लोप इष्टापत्ति है।' - तो यह ठीक नहीं है चूँकि ऐसा मानने पर उस ज्ञान को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आपत्ति आयेगी । (बौद्ध मत में अनुमान यद्यपि सामान्यग्राही होने से भ्रान्त ही होता है किन्तु परम्परया अर्थप्रापक होने से या समारोपव्यवच्छेदक होने से उसे प्रमाण माना जाता है, इस तरह के स्वतन्त्र प्रमाण की यहाँ आपत्ति है ।) दूरस्थवृक्षादि का ज्ञान पूर्व में अज्ञात अर्थ का ग्राहक होने से, और निकट जाने पर वृक्षप्राप्ति स्वरूप अविसंवाद होने से (भ्रान्त होने पर भी अनुमान की भाँति उपचार से उस में) प्रामाण्य का स्वीकार करना ही पडेगा । किन्तु आप इसे भ्रान्त मानते हैं, इसलिये उसे (निर्विकल्प) प्रत्यक्ष रूप तो नहीं मान सकते (क्योंकि 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षं' यह आप का सिद्धान्त है।) दूरस्थवृक्षज्ञान लिंगजन्य न होने से, उसे अनुमान स्वरूप भी नहीं मान सकते । प्रत्यक्ष और अनुमान के अलावा और तो कोई आप के मत में उपमान या शब्द प्रमाण मान्य नहीं है जिस में इस का अन्तर्भाव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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