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________________ द्वितीयः खण्डः का० - २ १७१ प्रसिद्धौ चानुमानं प्रवर्त्तते । न च साध्य - साधनयो: सर्वोपसंहारेण व्याप्तिरन्यतऽनुमानात् सिध्यति, तत्राप्यनुमानान्तरापेक्षणेनानवस्थाप्रसक्तेः । नाऽपि प्रत्यक्षेण, तस्य सन्निहितविषयग्राहकत्वेन देशादिविप्रकृष्टाशेषपदार्थालम्बनत्वानुपपत्तेः । अथ पुरोऽवस्थितेषु भावेष्वक्षजप्रत्ययेन 'स्वस्वभावव्यवस्थिते:' इत्यस्य हेतोः सर्वोपसंहारेण भेदेन व्याप्तिं प्रतिपद्यत इति प्रत्यक्षव्यापार एवायम् । असदेतत् यतो यत्रैव स्वव्यापारानुसारिणमनन्तरं विकल्पमाविर्भावयत्यध्यक्षं तत्रैवास्य प्रामाण्यं भवद्भिरभ्युपगम्यते, सर्वतो व्यावृत्तात्मनि त न ( न त ) द्वलात् तदुत्पत्तिः, सर्वदा अनुवृत्त - व्यावृताकारावसायिन एव तस्योत्पत्तेः । अन्यथा 'सजातीयाद् भेद:' इत्यभिधानानर्थक्यापत्तेः, क्षणक्षयानुमानस्य च वैयर्थ्यम् अक्षणिकादिव्यावृत्तेः स्वलक्षणानुभवप्रभवविकल्पे व्याप्ति का अनुमान करना है उसका धर्मीभूत सर्वभाव ही सिद्ध न होने से उस अनुमान का उत्थान ही शक्य नहीं है । और अनुमान प्रवृत्ति तो व्याप्ति सिद्ध होने पर ही हो सकेगी । यदि कहें कि 'जिस व्याप्ति के अग्रहण से उपरोक्त अनुमान की प्रवृत्ति का अभाव आप दिखा रहे हैं उस व्याप्ति का, यानी सर्व व्यक्ति को विषय करते हुये उन में साधन - साध्य की व्याप्ति का ग्रहण अन्यअनुमान से करेंगे' तो यहाँ अनवस्था दोष होगा क्योंकि उस अन्य अनुमान की भी विना व्याप्ति के प्रवृत्ति न होने से, उसकी प्रवृत्ति के लिये आवश्यक व्याप्तिग्रह के लिये और एक अनुमान करना होगा, उस के लिये भी और एक अनुमान... इस प्रकार अन्तहीन परम्परा चलेगी । यदि कहें कि 'पूर्वोक्त व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष से कर लेंगे तो यह भी शक्य नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष तो सन्निहित भावों का ही ग्राहक होता है अत: देश-काल व्यवहित सर्वभाव उस के विषय ही नहीं होते । ★ भेद के साथ व्याप्ति का प्रत्यक्ष से ग्रहण अशक्य ★ - यदि बौद्ध ऐसा कहें कि - 'सर्वभाव तो यद्यपि प्रत्यक्षालम्बन नहीं होते किन्तु जितने भाव सम्मुख उपस्थित होते हैं उन में तो 'स्वस्वभावव्यवस्थिति' रूप हेतु की भेद (स्वजातीय-विजातीय व्यावृत्ति) के साथ व्याप्ति का ग्रह हो सकता है, और उस भेद के गर्भ में सर्व पदार्थ रहे हुये हैं इस लिये सब को लेकर भेद के साथ व्याप्ति ग्रह होगा - इस प्रकार प्रत्यक्ष से ही व्याप्तिग्रह सिद्ध होता है ।' तो यह गलत बात है । कारण, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष आप के मत में उसी विषय में प्रमाणित होता है जिस विषय को निर्विकल्पव्यापार से फलित सविकल्प ज्ञान उजागर करता है । अब देखना यह है कि सविकल्प ज्ञान तो सर्वदा अनुवृत्त-व्यावृत्ताकार प्रकाशन करता हुआ ही उत्पन्न होता है, सर्वतो व्यावृत्ति का प्रकाशन वह नहीं करता है तब कैसे कहा जाय कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष से सर्वतो व्यावृत्ति गृहीत होती है ? यदि आप इस बात का इन्कार करेंगे कि सविकल्पज्ञान अनुवृत्तव्यावृत्ताकारावभासी होता है तब साध्यनिर्देशान्तर्गत 'सजातीय से भेद' ऐसे शब्दप्रयोग की भी संगति नहीं हो सकेगी । क्योंकि 'सजातीय' शब्द अनुवृत्ताकारविशिष्ट का उल्लेख करता है और भेद-शब्द व्यावृत्ति का, और आप तो उस प्रत्यक्ष का विषय सिर्फ व्यावृत्ति को दिखाना चाहते हैं जब कि दूसरी ओर 'सजातीय (विजातीय) व्यावृत्ति' ऐसे शब्दप्रयोग से सजातीयव्यावृत्ति को साध्य अन्तर्गत बता रहे हैं । दूसरी बात यह है कि अगर निर्विकल्प से उत्पन्न होने वाला सविकल्पज्ञान सिर्फ व्यावृत्ति को प्रकाशित कर सकता है, तब तो क्षणिकत्व का अनुमान भी व्यर्थ हो जायेगा, चूँकि अक्षणिक व्यावृत्ति भी स्वलक्षण के अनुभव से जन्य सविकल्प से निश्चित हो जायेगी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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