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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
शक्यम् अशेषपदार्थवैलक्षण्यप्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात् । न च सर्वतो व्यावृत्तिः व्यावृत्तपदार्थस्वरूपमेवेति तत्प्रतिपत्तौ साsपि प्रतीयते व्यावृत्या ( वर्त्या) र्थप्रतिपत्तिमन्तरेणापीति वक्तव्यम् सादृश्यप्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात् ।
अथ सजातीयविजातीयव्यावृत्तं निरंशं वस्तु तत्सामर्थ्यभाविनि च प्रत्यक्षे तत् तथैव प्रतिभाति, तदुत्तरकालभाविनस्त्ववस्तुसंस्पर्शिनो विकल्पाः व्यावर्त्यवस्तुवशविभिन्नव्यावृत्तिनिबन्धनान् सामान्यभेदान् व्यावृत्ते वस्तुन्युपकल्पयन्तः समुपजायन्ते न तद्वशात् तद्व्यवस्था युक्ता, अतिप्रसङ्गात् । तदुक्तम् - [प्र० वा० ३ । ४०-४१]
“सर्वे भावाः स्वभावेन । स्वस्वभावव्यवस्थितेः । स्वभाव - परभावाभ्यां यस्माद् व्यावृत्तिभागिनः ॥” " तस्माद् यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तभिबन्धनाः । जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः ॥ " - इत्यादि ।
ननु 'स्व-स्वभावव्यवस्थिते:' इत्येतस्य हेतोः स्वसाध्येन व्याप्तिः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते, आहोस्विदनुमानेन ? न तावदनुमानेन, प्रत्यक्षाऽविषयत्वेन सर्वभावानां धर्मिणोऽसिद्धेस्तदनुत्थानात् व्याप्ति
तो यह बात समानरूप से सादृश्य के लिये भी समझ लो कि बाहुलेयादि सापेक्ष सादृश्य शाबलेयादिपिण्डस्वरूप ही होता है अत: शाबलेयादि के दृष्टिगोचर होने पर वह सादृश्य भी दृष्टिगोचर हो जाता है, भले ही वहाँ बाहुलेयादि का ग्रहण न होता हो ।
★ स्वलक्षण सर्वसजातीयविजातीयों से व्यावृत्त कैसे ? ★
बौद्ध : अश्वादि स्वलक्षण वस्तु स्वयं निरंश होती है और अत एव सर्वसजातीय- विजातीय पदार्थों से व्यावृत्त ( विलक्षण) होती है । ऐसा इस लिये कि उस के आलम्बन से उत्पन्न होने वाले निर्विकल्पप्रत्यक्ष में उस का ऐसा ही भान होता है । निर्विकल्प के उत्तर काल में जो विकल्पज्ञान उत्पन्न होते हैं ये विकल्प, व्यावृत्त अश्वादि वस्तु में व्यावर्त्य अश्व - बैलादि वस्तु के भेद से भिन्न भिन्न जो अश्वेतरादिव्यावृत्तियाँ हैं तन्मूलक भिन्न भिन्न सामान्य, व्यावृत्त वस्तु में होने की कल्पना जाग्रत करते हैं, किन्तु उन के सामर्थ्य से सामान्य की स्थापना युक्त नहीं होती क्योंकि कल्पनाविहारी होने के कारण ये विकल्पज्ञान वस्तुस्पर्शी नहीं होते हैं । यदि कल्पनात्मक विकल्प से वस्तुसिद्धि मानी जाय तब तो 'खरविषाण' शब्दजन्य विकल्प से खरविषाण की भी सिद्धि होने का अतिप्रसंग हो सकता है । प्रमाणवार्त्तिक में कहा है।
"सभी भाव स्वभाव से ही अपने अपने स्वरूप से व्यवस्थित होने के कारण वे सब स्वभाव (= यानी सजातीय) और परभाव (यानी विजातीय) पदार्थों से व्यावृत्ति वाले ( अत्यन्त भेदधारी) ही होते हैं । (किसी अन्य भाव से भिश्रस्वभाव नहीं होते ।) इसीलिये जिन जिन अतद्रूप पदार्थों से उन अर्थों की व्यावृत्ति होती है उन व्यावृत्तियों के बल पर तत् तत् स्वलक्षण के आश्रित के रूप मे कल्पित जातिभेदों की कल्पना विकल्पों से स्थापित होती है । ” इत्यादि ।
स्याद्वादी :- आपने जो सजातीय विजातीय व्यावृत्ति को दिखाने के लिये 'अपने अपने स्वरूप से व्यवस्थित होने के कारण' यह हेतु निर्देश किया है - यहाँ प्रश्न यह है कि सर्वभावों में, स्वस्वभावव्यवस्थिति हेतु में अपने साध्यभूत सजातीयविजातीयव्यावृत्ति की व्याप्ति को आपने कैसे गृहीत किया ? प्रत्यक्ष से या अनुमान से ? अनुमान से तो सम्भव नहीं है क्योंकि सभी भाव प्रत्यक्ष के विषय होते नहीं है तब जिन सर्वभावों में उपरोक्त
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