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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १६९ मानाः' इति प्रत्ययविषयभूतमभ्युपगम्यते तथाभूतस्य तस्य शब्देनाभिधाने किमित्यन्यत्र प्रेरितोऽन्यत्र खादनाय धावेत यद्युन्मत्तो न स्यात् । अत एव - "वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं गोत्वं हि गीयते" [द्र० प्र०वा० २-१४७ तत्त्वसं०का० ७३८ उ० तथा अपोहसि० प्र० पृ० १२- पं० ५] न च निर्विकल्पकेऽक्षप्रभवे प्रत्यक्षे पुराव्यवस्थितव्यक्तिद्वयप्रतिभासव्यतिरेकेण परो यथाव्यावर्णितस्वरूपः सामान्याकारः प्रतिभाति, नाऽपि सविकल्पके 'गौरौः' इत्युल्लेखवति व्यक्तिस्वरूपं बहिरुद्भासमानमन्तवाभिजल्पाकारमपहायान्यः सामान्यात्मा यथाव्यावर्णितस्वरूपः प्रतिभाति, न चान्यावभासमन्याकारार्थव्यवस्थापकं ज्ञानं तद् भवति अतिप्रसङ्गात् - इत्येतदपि निरस्तम्; अवर्णाकृत्याद्याकारव्यतिरेकेण सादृश्यपरिणामात्मानः सामान्यस्याक्षजप्रतिपत्तिविषयस्य व्यक्त्यात्मतया दाहाद्यर्थक्रियाकारिणोऽभ्युपगमात् । न च शाबलेयादेः सादृश्यं बाहुलेयाद्यपेक्षमिति तदप्रतीतौ तदपेक्षस्य तस्याप्यप्रतिपत्तिरिति वक्तुं भिन्न होता है । फलत: 'दधि' शब्द से ऊँट से व्यावृत्त दधि में रहने वाले ही सामान्य का बोध होने से श्रोता दधिग्रहण के लिये ही प्रेरित होता है फिर ऊँट के लिये दौडने की बात ही कैसे ? हाँ, पागल की बात अलग इस के साथ यह भी निरस्त हो जाता है जो प्रमाणिवार्त्तिक में वर्णाकृति०....इत्यादि से कहा है - "गोत्वरूप सामान्य 'वर्ण( रूप), संस्थान और ग-औ-विसर्ग इत्यादि अक्षरों की मुद्रा' से शून्य है । इन्द्रियजन्य निर्विकल्पप्रत्यक्ष में संमुखवर्ती प्रतिनियत दो गाय व्यक्ति का ही अवभास होता है, किन्तु उस गोव्यक्तियुगल के अलावा वर्णादिशून्य उन दोनों में वर्तमान किसी सामान्याकार का भास नहीं होता । सविकल्प प्रत्यक्ष में भी बाह्यरूप से स्फुरद् आकार आन्तर रूप से अभिजल्पाकार व्यक्तिस्वरूप का ही 'यह गौ है गौ है' इतना उल्लेख होता है किन्तु इस से अधिक अनेक व्यक्ति में अनुगत, वर्णादिआकारशून्य ऐसे किसी एक सामान्याकार भासित नहीं होता है । एक आकार वाले ज्ञान से अन्याकार अर्थ की व्यवस्था होना शक्य नहीं है, अन्यथा अश्वाकार ज्ञान से गर्दभाकार अर्थ की प्रतिष्ठा का प्रारम्भ हो जाने का अतिप्रसंग आयेगा।" - यह इस लिये अब निरस्त हो जाता है कि हम वैसे सामान्य का स्वीकार नहीं करते, किन्तु वर्णादिआकार से मुद्रित व्यक्ति से अभिन्न होने के कारण दाह-पाकादि अर्थक्रियाकारी एवं इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में भासमान ऐसे सादृश्य परिणतिस्वरूप सामान्य को ही हमने अंगीकार किया है । ★ सादृश्य दृष्टिगोचर न होने के आक्षेप का उत्तर ★ सादृश्य के विरोध में प्रतिवादी यदि ऐसा कहें - 'शाबलेयादि पिण्डों में जो बाहुलेयादि पिण्डों से सादृश्य आपने माना है वह बाहुलेयादि के सापेक्ष होने से, बाहुलेयादि दृष्टिबाह्य होने पर, शाबलेयादि में उस का सादृश्य भी दृष्टिगोचर नहीं होगा' - तो ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि आपने जो शाबलेयादि में अन्य समस्त वस्तु का वैलक्षण्य (व्यावृत्ति के रूप में) स्वीकृत किया है वह भी समस्त वस्तु के सापेक्ष भाव रूप होने से, समस्त वस्तु के दृष्टि बाह्य रहने पर गृहीत नहीं हो सकेगा - दोनों पक्ष में यह बात समान है। यदि ऐसा कहा जाय कि - 'वस्तुसमस्त की व्यावृत्ति, शाबलेयादि व्यावृत्त पदार्थात्मक ही होती है अत: शाबलेयादि दृष्टिगोचर होने पर वह व्यावृत्ति भी दृष्टिगोचर बन जायेगी, भले ही वहाँ व्यावर्त्य वस्तुसमस्त का ग्रहण न होता हो' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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