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________________ १६८ तीयव्यावृत्तिनिबन्धन (त्वे) सादृश्यपरिणतेः सजातीयव्यावृत्तिनिबन्धनस्याप्यत्यन्तभिन्नरूपस्याऽपारमार्थिकत्वात् तत्परिणतिव्यतिरेकेण चापररस्य स्वलक्षणस्याऽसंभवात् तदाकारज्ञानस्वलक्षणस्याप्यभाव इति सर्वशून्यताप्रसक्तिः । न च ' सैवाऽस्तु' इति वक्तुं युक्तम्, अप्रामाणिकयास्तस्या अप्यनभ्युपगमनीयत्वात् । तस्मात् समानाऽसमानपरिणामात्मनः शाबलेयादिवस्तुनोऽबाधिताकारप्रत्यक्षप्रतिपत्तौ प्रतिभासनाद् विशेषवद् १८३-१८४ पू०] चोदितो दधिखादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति । अथास्त्यतिशयः कश्चिद् येन भेदेन वर्त्तते ॥ स एव दधि सोऽन्यत्र नास्तीत्यनुभयं परम् । इत्यादि यदुक्तं धर्मकीर्त्तिना, तदपि पराकृतं दृष्टव्यम् । न ह्यस्माभिर्दध्युष्ट्रयोरेकं तिर्यक् सामान्यं वस्तुत्वादिकं व्यक्त्यभेदेन व्यवस्थितं तथाभूतप्रतिभासाभावादभ्युपगम्यते, यादृग्भूतं तु प्रतिव्यक्ति 'सअपारमार्थिक होता है (अर्थात् विजातीय व्यावृत्ति का निमित्त बनने वाला सादृश्य अपारमार्थिक है) ऐसा अगर मानेंगे तब सजातीय व्यावृत्ति प्रयोजक जो अत्यन्त भेदात्मक (यानी व्यक्तिविशेष) रूप है उस को भी क्यों अपारमार्थिक न माना जाय ? यदि इस को भी अपारमार्थिक मानेंगे तब तो स्वलक्षण पदार्थ अत्यन्तभेद परिणाम से पृथक् तत्त्व रूप न होने से स्वलक्षण भी अपारमार्थिक हो जायेगा, एवं बाह्य स्वलक्षणाकार ज्ञानात्मक स्वलक्षण भी अपारमार्थिक हो जाने से आखिर सर्वशून्यता सीर उठायेगी । ' उठाने दो, क्या गया ?' ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि सर्वशून्यता का समर्थक कोई प्रमाण न होने से वह मानने योग्य नहीं हैं । न सामान्याभावः । श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् एतेन - [ प्र० वा० ३ / १८२ उत्तरार्ध “सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतः । Jain Educationa International - निष्कर्ष : - समान एवं असमान, उभयपरिणात्मात्मक शाबलेयादि वस्तु अबाधिताकार से प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय हो रही है तब सिर्फ विशेष का ही स्वीकार करे यह उचित नहीं है, विशेष का अभाव जैसे अमान्य है वैसे ही सामान्य का भी अभाव मान्य नहीं हो सकता । ★ सर्व वस्तु की उभयरूपता के ऊपर आक्षेप का प्रतिकार ★ - धर्मकीर्त्ति ने अपने प्रमाणवार्त्तिक में, वस्तु कीं उभयरूपता के ऊपर जो आक्षेप किया है। "समस्त वस्तु यदि उभयरूप है और 'दधि ही दधि है न कि ऊँट' एवं 'ऊँट ही ऊँट है न कि दधि' इस प्रकार के भेद को यदि अमान्य करते हैं तब 'दहीं खाओ' ऐसा सुनने वाला ऊँट को खाने के लिये क्यों दौडता नहीं ( जब कि आप के मत में दधि उभयरूप है यानी ऊँट स्वरूप भी है) ।" यदि कहें कि "ऊँट में दधि की अपेक्षा कुछ ऐसा अतिशय है जिस से प्रेरित हो कर श्रोता 'ऊँट शब्द से ही ऊँट के लिये प्रवृत्ति' इत्यादि प्रतिनियत रूप से प्रवृत्त होता है" तब तो वही दधिस्वरूप विशेष अन्यत्र ऊँट में न होने से वस्तु उभयस्वरूप नहीं है यह सिद्ध हुआ ।” यह धर्मकीर्त्ति का आक्षेप निरस्त हो जाता है । कारण, हम सामान्यविशेष उभयस्वरूप वस्तु मानते हैं उस में जो सामान्य है वह दधि और ऊँट दानों में रहने वाला और उन दोनों व्यक्तियों से अभिन्न एवं एक ही हो ऐसा कोई वस्तुत्वादिरूप तिर्यक् सामान्य हमने नहीं माना है, क्योंकि वैसे उभयनिष्ठ एक सामान्य का प्रतिभास होता नहीं है । हम तो 'ये सब समान हैं' ऐसी प्रतीति के आधार पर उस के विषयरूप में सिद्ध होने वाले ऐसे सामान्य को स्वीकार करते हैं जो दधि उष्ट्र आदि प्रत्येक व्यक्तियों में भिन्न - For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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