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द्वितीयः खण्डः - का० - २
१६७
यदि तत्रापि व्याप्यस्य व्यापकविरोधिना विरोधः सिध्येत्; स चाऽसिद्ध: विरोधद्वयस्याप्यसिद्धेः । भिन्नयोगक्षेमस्याप्यभेदाभ्युपगमे भेदः क्वचिदपि न सिध्येदिति विश्वमेकं स्यादिति चेत् ? स्यादेतत् यद्याभ्यां भेदाभेदव्यवहारव्यवस्था भवेत् सा तु भेदाभेदप्रतिभासवशादिति सामान्यविशेषयोरसहोत्पादविनाशेऽप्यभेदप्रतिभासादभेदो न विरुद्ध इति कथं न वस्तुभूतसामान्यसद्भावः ?
न च यदेव शाबलेयव्यक्तौ सदृशपरिणतिलक्षणं सामान्यं तदेव बाहुलेयव्यक्तावपि, व्यापकस्यैकस्य सर्वगोव्यक्त्यनुयायिनः तस्याऽनभ्युपगमात् । तदनभ्युपगमश्च शाबलेयादिव्यक्तीनां बाहुलेयादिव्यक्तिसदृशतया प्रतिभासेऽप्येकानुगतसामान्यक्रोडीकृतत्वेनाऽप्रतिभासनात् । परेणापि हि 'समाना इति तद्ग्रहात् " [प्र० वा० ३ १०७ ] इति ब्रुवता स्वहेतुभ्यः एव केचिच्छाबलेयादिव्यक्तिविशेषः सदृशाः उत्पन्ना इत्यभ्युपगतमेव, केवलं सदृशपरिणतिलक्षणस्तासां धर्मः कथंचिदभिन्ने वस्तुभूतोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथाऽपारमार्थिक (त्वे) विजाक्योंकि ये एक-दूसरे के अभाव रूप नहीं है ।
यदि कहा जाय 'जिन दोनों के योगक्षेम भिन्न भिन्न हैं उन में भी यदि भेद स्वीकार नहीं करेंगे तब तो विश्व में भेद का अस्तित्व ही लुप्त हो जायेगा, फलतः सारा विश्व ही एक हो जायेगा, क्योंकि चाहे कितना भी भिन्न योगक्षेम हो, कहीं भी भेद नहीं मानना है ।' तो यह आपत्ति भी तब प्रसक्त हो सकती जब ऐसा माना जाय कि भेद और अभेद के व्यवहार की व्यवस्था भिन्न भिन्न योगक्षेम के ऊपर निर्भर हो । वास्तव में, भेदाभेदव्यवहार की व्यवस्था भेदप्रतिभास और अभेदप्रतिभास पर निर्भर है न कि भिन्न योगक्षेम के ऊपर । अतः सामान्य और विशेष में, एक साथ उत्पत्ति, एक साथ विनाश इत्यादि समान योगक्षेम के न होने दोनों का अभेदप्रतिभास विख्यात है इसलिये उन दोनों में अभेद मानने में कोई विरोध नहीं है । जब इस प्रकार सद्भूत विशेष से कथंचिद् अभिन्न ऐसे सामान्य की सिद्धि निर्बाध होती है तब सामान्य को वस्तुभूत क्यों न माना जाय !!
पर
★ व्यापक एक सर्वव्यक्तिनिष्ठ सामान्य अमान्य ★
अपोहवादीने एक व्यापक सामान्य की मान्यता में जो बाधक दिखलाये हैं वे भी स्याद्वाद में निरवकाश हैं । कारण शाबलेयादि पिण्डों में जो सदृशपरिणतिरूप सामान्य है वही बाहुलेयादि पिण्डों में हो ऐसा हम नहीं मानते हैं । हम नैयायिकों की तरह सकल गाय में रहने वाले व्यापक एक गोत्वादि रूप सामान्य को नहीं मानते हैं । नहीं मानने का कारण यह है कि शाबलेयादि पिण्डों में बाहुलेयादि पिण्डों का सादृश्य भासित होने पर भी एक ही अनुगत गोत्वादि सामान्य के द्वारा सकल गोव्यक्तियाँ आक्रान्त हो ऐसा प्रतिभास नहीं होता है । [हमारे मत मेंतो सदृशाकार परिणतिरूप सामान्य तद् तद् व्यक्तिगत पृथक् पृथक् परिणामरूप ही होता है लेकिन वह परिणाम दीर्घत्व ह्रस्वत्व की तरह अन्य सापेक्ष होने के कारण समानाकार बुद्धि को जन्म देता है ।] अन्य वादीयोंने भी “ये सब पिण्ड समान हो इस तरह गृहीत होते हैं " ऐसा कहते हुये यह तो स्वीकार लिया है कि कुछ शाबलेय-बाहुलेयादि पिण्ड अपने अपने हेतुओं से सदृशाकारवाले ही उत्पन्न होते हैं। सिर्फ इतना अधिक स्वीकार होना चाहिये कि शाबलेयादि पिण्डों का वह सदृशपरिणामात्मक धर्म उन पिण्डों से कथंचिद् अभिन्न है और वस्तुभूत है । यह नहीं बिसरना कि यह अनुगताकार बुद्धि सादृश्यात्मक परिणाममूलक ही होती है वैसे ही विजातीय अश्वादिव्यावृत्ति भी सादृश्यमूलक ही होती है, इस स्थिति में यदि माना जाय कि सादृश्य
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