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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् क्षतः प्रतीतेः । न च प्रकृतानुमानबाधनात् तत्तादात्म्यप्रतीतिन्तिरिति नासिद्धो हेतुः, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् । ।
तथाहि - प्रकृतानुमानस्य प्रवृत्तौ तन्मिथ्यात्वेन पक्षधर्मतानिश्चयः, तनिश्चये चानुमानस्य प्रवृत्तिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । प्रमाणान्तरेण तदाधने प्रकृतसाधनवैफल्यम्, तत एव तद्भेदसिद्धेः । 'सामान्यविशेषयोर्भेद एव, भिन्नयोगक्षेमत्वात् हिमवद्-विन्ध्ययोरिति(व)' इत्येतदपि साधनं प्रान्झदर्शित साधनदोषं नातिवर्तते इत्ययुक्तमेव । भिन्नयोगक्षेमत्वस्य विपक्षण साक्षादविरोधिनोऽनिश्वितव्यतिरेकस्य भेदेन व्याप्यसिद्धेश्च । अथाऽसाध्यस्य साधनविरुद्धैकयोगक्षेमत्वव्याप्तत्वाद् विरोधः पारम्पर्येण सिद्ध एव । भवेदेतत् तादात्म्य साधक प्रत्यक्ष प्रतीति भ्रान्त सिद्ध होने पर हमारा तादात्म्यशून्य स्वभावभेद हेतु असिद्ध नहीं होगा' - तो यहाँ स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त है।
★ तादात्म्यशून्यस्वभावभेद पर अन्योन्याश्रय दोष ★ वह इस प्रकार : - तादात्म्यशून्य स्वभावभेदहेतुक अनुमान की प्रवृत्ति से प्रत्यक्ष प्रतीति में भ्रान्तता सिद्ध होने पर 'हेतु पक्षवृत्ति है' यह सिद्ध होगा और हेतु में पक्षवृत्तित्व सिद्ध होने के बाद अनुमान प्रवृत्त हो सकेगा - अन्योन्याश्रय स्पष्ट है।
भेदवादी : 'सामान्य-विशेष भिन्न ही है, क्योंकि दोनों के योगक्षेम भिन्न भिन्न हैं। जैसे : हिमालय और विन्ध्याचल । हिमाचल में बारीश हो तब विन्ध्याचल में भी बारीश हो, हिमाचल में ठंड हो तब विन्ध्याचल में भी ठंड हो, हिमाचल में गर्मी हो तब विन्ध्याचल में भी गर्मी हो, ऐसा तुल्य योग-क्षेम इन दोनों में न होने से, दोनों में भेद प्रसिद्ध है । इसी प्रकार सामान्यपदार्थ और विशेष पदार्थ इन दोनों के भी योगक्षेम भिन्न भिन्न हैं इसलिये इन दोनों में भी भेद ही हो सकता है।"
भेदाभेदवादी : आप के इस अनुमान में भी पूर्वानुमान के हेतु में जैसे प्रमाणान्तरबाध आदि दोष प्रदर्शित किये गये हैं वे सब यहाँ लागू होते हैं । अत: यह अनुमान भी गलत है । दूसरी बात यह है कि अभेदरूप विपक्ष के साथ भिन्न योग-क्षेमत्व का कोई साक्षात् विरोध सिद्ध नहीं है । (क्योंकि मिट्टी और घट के अभिन्न होते हुए भी घट से जलाहरण होता है, मिट्टी से नहीं होता....इत्यादि भिन्न भिन्न योगक्षेम देखा गया है) अतः विपक्षव्यावृत्ति जिस की शंकाग्रस्त है वैसे भित्रयोगक्षेमत्व हेतु में भेद की व्याप्ति भी सिद्ध नहीं हो सकती।
यदि ऐसा कहें कि - "साध्यविरोधी जो अभेद है उस का व्याप्य जो तुल्य योगक्षेमत्व है वह हेतु का विरोधी है । अत: साध्यविरोधी के व्याप्य का विरोधी हेतु होने से परम्परया असाध्य (विपक्ष) का भी विरोध हेतु के साथ सिद्ध हुआ। इस प्रकार हेतु में विपक्षवृत्तित्व की शंका टल जाने से व्याप्ति सिद्ध हो जायेगी।" - तो यह ऐसा तभी कह सकते हैं जब व्यापक (साध्य) के विरोधी अभेद के साथ उक्त रीति से व्याप्य का विरोध सिद्ध माना जाय । देखिये - विरोध के दो प्रकार हैं उन में से, अभेद (व्यापकविरोधी) और भित्र योगक्षेमत्व का सहानवस्थान रूप पहला विरोध नहीं है क्योंकि मिट्टी और घट की बात अभी कर आये हैं। एवं 'एक दूसरे को छोड कर रहना' यह दूसरा विरोध भी यहाँ अभेद और भिन्नयोगक्षेमत्व के बीच नहीं है १. यहाँ अप्राप्त की प्राप्ति योग और प्राप्त की रक्षा क्षेम, ऐसा अर्थ नहीं लेना है; किन्तु जो बात एक के लिये वह दूसरे के लिये भी
अर्थात् समान अर्थक्रिया अथवा लाभ-हानि अथवा समानरुचि इत्यादिस्वरूप योग-क्षेम की बात है । यहाँ सामान्य-विशेष में एक साप उत्पत्ति, एक साथ विनाश इत्यादि योगक्षेम ले सकते हैं।
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