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द्वितीयः खण्डः का० - २
अथान्तर्व्याप्यभावान्नानयोर्व्याप्यव्यापकभावः तत् प्रकृतानुमानेऽपि तुल्यम् । 'पक्षस्याऽध्यक्ष विरुद्धत्वादश्राaणत्वानुमानाऽप्रवृत्तिः' इति चेत् ? न तर्हि स्वभावभेदानुमानेऽपि प्रमाणान्तरबाधाविरहः, लक्षणयुक्ते बाधाऽसम्भवेऽन्यत्रापि तत्सम्भवात् । हेतोरसाध्येन श्रावणत्वेन विरोधाभावात् संशयितव्यतिरेकस्याऽयथोक्तत्वेऽन्यत्रापि कथंचित् स्वभावभेदस्याऽभेदेनाऽविरोधात् समानमुत्पश्यामः । सर्वथा स्वभावभेदस्य चाभेदविरोधिनो दृष्टान्तेऽप्यभावात् घटादेरपि केनचिदाकारेण सदृशत्वेनाऽभेदात् । यदि पुनः ' तादात्म्यर - हिताऽत्यन्तस्वभाव भेदात्' इति हेत्वर्थो विवक्षितस्तदाऽसिद्धो हेतुः सामान्यविशेषयोः तादात्म्येनापि प्रत्य
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यदि कहा जाय 'सत्त्व और अश्रावणत्त्व का घट में सामानाधिकरण्य होने पर भी सत्त्व में अश्रावणत्त्व की तर्कमूलक व्याप्ति के न होने से उन के बीच में व्याप्य व्यापकभाव असिद्ध है अतः इस अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होगी' तो आप के प्रकृत अनुमान में भी यह बात समान है कि स्वभावभेद हेतु में सामान्यविशेष भेद की तर्कमूलक व्याप्ति न होने से यहाँ भी व्याप्यव्यापकभाव असिद्ध होने से आप के उक्त अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होगी । अर्थात् सामान्य - विशेष में स्वभावभेद भी हो सकता है और परस्पर अभेद भी हो सकता है । यदि यह कहा जाय "अश्रावणत्व साध्य पक्षात्मक ध्वनि से अत्यन्त विरुद्ध है क्योंकि ध्वनि तो श्रावणप्रत्यक्ष ही होता है, श्रावणत्व और अश्रावणत्व परस्पर विरुद्ध होता है अतः प्रमाणान्तर बाध न मानने पर भी वहाँ विरोध के कारण अनुमानप्रवृत्ति शक्य नहीं है ।" तो आपने जो स्वभावभेदहेतुक सामान्य विशेषभेद साधक अनुमान प्रस्तुत किया है वहाँ भी प्रमाणान्तर के बाध का विरह आप नहीं कह सकते । बाध का लक्षण (= स्वरूप) है पक्ष में साध्य के अभाव का अन्य प्रमाण से निश्चय । इस निश्चय के होते हुये भी अ को स्वभावभेदहेतुक अनुमान में बाध अमान्य है तो अन्यत्र सत्त्वादिहेतुक अश्रावणत्वादि के अनुमान में भी बाध अमान्य करने का पूरा सम्भव है ।
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यदि ऐसा कहें कि 'सत्त्व हेतु का साध्यविपरीत श्रावणत्व के साथ अगर विरोध होता तब तो उस की विपक्षव्यावृत्ति सुनिश्चित रहने से अनुमानप्रवृत्ति शक्य थी किन्तु सत्त्व का श्रावणत्व के साथ विरोध न होने से, उस की विपक्षव्यावृत्ति संशयग्रस्त होने की दशा में (अयथोक्तत्वे... ) बाधविरह का संभव नहीं है, अपि तु प्रमाणान्तर बाध हो सकता है' तो आप के अनुमान में भी वह प्रसक्त होगा, क्योंकि सर्वथा स्वभावभेद को अभेद के साथ विरोध हो सकता है किन्तु कथञ्चित् स्वभावभेद को अभेद के साथ विरोध न होने से वहाँ भी स्वभावभेद हेतु की विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध हो जाने से प्रमाणान्तर - बाध का विरह टल जाता है । यदि कहें कि 'हमने कथंचित् नहीं किन्तु सर्वथा स्वभावभेद को ही हेतु किया है जो अभेद का विरोधी है' तो आपके दृष्टान्त में भी वैसा हेतु सिद्ध नहीं है, क्योंकि घट और वस्त्र में भी किसी न किसी सत्त्व, द्रव्यत्व, भौतिकत्वादि रूप से सादृश्य जीवित होने से कथंचित् अभेद होने के कारण सर्वथा स्वभावभेद नहीं रहता । यदि कहें कि 'स्वभावभेदरूप हेतु का अर्थ तादात्म्यशून्य अत्यन्त स्वभावभेद है, तात्पर्य, जिन भाव और अभाव में तादात्म्यशून्य सर्वथा स्वभावभेद हीं रहता है ऐसे स्वभावभेद को हेतु बनाएँगे तो उपरोक्त दोष नहीं होगा ।' तो यहाँ हेतु ही असिद्ध रहेगा क्योंकि सामान्य विशेष में प्रत्यक्ष से ही कथंचित् अभेद
प्रतीति प्रसिद्ध है, अतः तादात्म्यशून्य स्वभावभेद रूप हेतु ही वहाँ नहीं रहेगा । यदि कहें कि - स्वभावभेद हेतुक हमारे अनुमान से सामान्य - विशेष में तादात्म्यशून्य भेद की सिद्धि करेंगे और उस अनुमान से सामान्य - विशेष
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