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________________ १७४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वक्तुं शक्यत्वात् । तथाहि - सर्वात्मनेन्द्रियार्थसंनिकर्षवादिनाऽपि शक्यमेवं वक्तुम् - संनिकर्षस्याऽविशेषेऽपि सर्वात्मना न भावस्य ग्रहणम् क्वचिदेवांशे सामर्थ्यात् एकत्र सामर्थ्यमेवान्यत्राऽसामर्थ्यमिति । न च समारोपव्यवच्छेदकत्वेनानुमानस्य प्रामाण्यम् न पुनः प्रत्यक्षपृथग्(?ष्ठ)भाविनो विकल्पस्येति वक्तुं युक्तम् तस्य तद्व्यवच्छेदकत्वानुपपत्तेः । तथाहि - क्षणिकेऽक्षणिकज्ञानं समारोपः, तच्चानुमानप्रवृत्तेः प्रागिव पश्चादप्यविकलमिति कथं तथापि तस्य प्रामाण्यम् ? 'पश्चादस्खलत्प्रवृत्तेः समारोपस्याऽप्रवृत्तेरस्त्येव तवैकल्यमिति चेत् ? न, तदा स्खलवृत्तेरक्षणिकप्रत्ययात् स्वपुत्रादौ प्रवृत्तिर्न स्यात् । समारोपप्रतिषेधश्वाभावत्वेनाहेतुकः स कथमनुमानेनान्येन वा क्रियते ज्ञाप्यते वा, अभावेन सह कस्यचित् सम्बन्धाभावात् तस्य तथाऽप्रतिपत्तेश्च ? अथ प्रवृत्तसमारोपस्य स्वत एवाभावात् अनुमानात् क्षणिकत्वनिश्चये भाविनथाsसे अगृहीत इसलिये रहता है कि पर्वत के पृष्ठभाग में रहे हुओ अग्नि आदि के साक्षात्कार में प्रत्यक्ष सक्षम नहीं है।" - तो यहाँ और एक प्रश्न है कि एक ही अनुभव ज्ञान अपने अर्थ के रूप-रसादि अंशके निश्चय को उत्पन्न करने के लिये सक्षम भी है और क्षणिकत्वादि अंश के निश्चय में अशक्त भी है। यहाँ स्पष्ट ही विरोध है तब ऐसा कैसे हो सकता है ? अगर ऐसा मानेंगे तो विरोध तो है ही, उपरांत एक अर्थ में तो आकारभेद भी नहीं होता है अत: आकारभेद से विरोध को टाल भी नहीं सकते । कुछ भी विशेषता न होने के बावजुद एक अनुभवज्ञान को एक के प्रति सक्षम और अन्य के प्रति अशक्त मानेंगे तो दुसरा वादी संनिकर्ष के लिये भी यह कह सकता है । जैसे इन्द्रिय का वस्तु के साथ सर्वात्मना संनिकर्ष मानने वाला वादी ऐसा कह सकेगा कि संनिकर्ष सर्वात्मना होने में कोई विशेष न होने पर भी भाव का सर्वात्मना ग्रहण नहीं होता है क्योंकि संनिकर्ष का ऐसा ही स्वरूप है कि कुछ एक अंश के ग्रहण में ही सक्षम होता है, और कुछ एक अंश के ग्रहण का सामर्थ्य स्वभाव ही अन्य अंशो के ग्रहण का असामर्थ्य है । इसलिये स्वभावभेद भी प्रसक्त नहीं है। ★ अनुमान से समारोपव्यवच्छेद की अनुपपत्ति ★ यदि कहें कि - ‘अनुमान समारोपव्यवच्छेदक होने से प्रमाण होता है । पर्वत में अनग्निसमारोप का अग्नि अनुमान से व्यवच्छेद होता है । प्रत्यक्ष के अनंतर होने वाला विकल्प तो प्रत्यक्षगृहीत अर्थ को ही नाम-जात्यादि से योजित कर के ग्रहण करता है, किसी भी समारोप का विच्छेदक नहीं होता, अत: वह प्रमाण नहीं माना जाता ।' - तो यह भी बोलने जैसा नहीं, क्योंकि अनुमान में समारोप की व्यवच्छेदकता ही युक्ति से संगत नहीं होती । देखो - समारोप यानी क्षणिक में अक्षणिकत्व का भान होना । क्षणिकत्वानुमान के उदय के पहले जैसे वह भान होता आया है वैसे ही उस अनुमान के बाद भी वस्तु को देखने पर अक्षणिकत्व यानी स्थायिपन का पूर्ववत् ही ज्ञान होता रहता है । तब समारोप का व्यवच्छेद कैसे हुआ ? फिर कैसे अनुमान को प्रमाण कह सकते हैं ? यदि कहें कि - 'उस में कुछ फर्क जरूर हो जाता है । मतलब, अनुमान के पहले जो स्थायिपन का भान होता है वह दृढविश्वासगर्भित होता है, किन्तु अनुमान के बाद जो स्थायिपन का भान होता है वह दृढविश्वासयुक्त नहीं होता । अत: दृढविश्वासयुक्त स्थायिपन के भान का व्यवच्छेद करने वाला होने से अनुमान प्रमाण होता है।' -- तो यह भी विश्वसनीय नहीं है । कारण, अगर अनुमान के बाद अपने पुत्र-परिवार आदि में स्थायिपन की बुद्धि दृढ विश्वासयुक्त न होती तब तो उन के बाहर जाने पर उन की प्रतीक्षा आदि प्रवृत्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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