SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १६३ गच्छता ग्राह्य-ग्राहकाकारविविक्ता साऽभ्युपगता भवति, स्वसंवेदने च सा यदि तथैवावभाति तदा ग्राह्य-ग्राहकाकारप्रतिभासः क्वचिदपि ज्ञाने न प्रतिभासते इत्यप्रवृत्तिकं जगत् स्यात् । अथ ग्राह्य-ग्राहकविनिर्मुक्तमात्मानं प्रच्छाद्य संवित्तिरियं स्वसंवेदने चैतन्यलक्षणं स्वभावमादर्शयति, कथं तर्हानेकान्तं सा प्रतिक्षिपेत् ? प्रतिभासमानाऽप्रतिभासमानयोश्च चैतन्य-ग्राहग्राहकाकारविवेकलक्षणयोधर्मयोरविरोधं च कथं न प्रकाशयेत् ? अपि च द्विविधो वो विरोधः - सहानवस्थानलक्षणः, परस्परं परिहारस्थितिलक्षणश्च । स च द्विविधोऽप्येकोपलम्भेऽपरानुपलम्भाद् व्यवस्थाप्यते, साधारणाऽसाधारणाकारयोस्त्वध्यक्षेण भेदाभेदात्मतया प्रतीतेः कथं विरोधः ? तद्रूपाऽतद्रूपाकारते हि तयोर्भेदाभेदौ, तथावभासनमेव च तयोर्भेदाभेदग्रहणमिति कथं विरोधाऽनवस्थानादिदूषणावकाशः ? न च तयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणता सम्भवति अव्यवच्छेदआपने 'चित्रज्ञान को क्यों एक मानते हो' ऐसा कह कर जो दोषोद्भावन किया है वह दोषरूप नहीं है । (इष्टापत्ति ही है ।) स्याद्वादी : अरे । तब तो ग्राह्याकार एवं ग्राहकाकार से शून्य एक मात्र संवेदनाकार ही बुद्धि माननी होगी, क्योंकि स्वप्रकाश होने से प्रत्येक बुद्धि संवेदनाकार तो अनुभवसिद्ध है, फलत: किसी भी ज्ञान में ग्राह्याकार और ग्राहकाकार का प्रतिभास न होने पर सिर्फ ज्ञानाकार मात्र का ही संवेदन होने पर, बाह्यार्थ असंविदित रह जाने से उस के लिये होने वाली सम्पूर्ण प्रवृत्ति रुक जायेगी और सारा जगत् प्रवृत्तिशून्य हो जायेगा। बौद्धवादी : बुद्धि स्वयं ग्राह्यग्राहकाकारशून्य होने पर भी वह स्वसंवेदन में अपनी जात को उस स्वरूप में प्रदर्शित नहीं करती किन्तु (उस स्वरूप को आच्छादित कर के) सिर्फ अपने चैतन्यमय स्वभाव को ही प्रदर्शित करती है । ग्राह्यग्राहकाकारशून्य रूप से वह स्वसंविदित न होने के कारण वासनाजन्य बाह्यार्थ प्रवृत्ति की बाधक नहीं बन सकती, अत: प्रवृत्तिशून्यता की आपत्ति निरवकाश है । स्यावादी : जब आप एक ही बुद्धि में चैतन्यस्वरूप धर्म का प्रतिभास और ग्राह्यग्राहकाकारशून्यतारूप धर्म का अप्रतिभास, ऐसे परस्पर विरुद्ध दो धर्मों के समावेश वाली एक बुद्धि का अंगीकार करते हो तब वह बुद्धि अनेकान्तवाद का प्रतिक्षेप कैसे कर पायेगी ? 'विरुद्ध दिखाई देने वाले अनेक धर्मों का एक धर्मी में समावेश' यही अनेकान्त है जो उस बुद्धि में भी दिखते हैं । उपरांत, वही बुद्धि प्रतिभासमान चैतन्य धर्म और अप्रतिभासमान ग्राह्यग्राहकाकारशून्यतात्मक धर्म इन दोनों के अविरोध को भी क्यों नहीं सिद्ध करेगी जब वह स्वयं उन दोनों धर्मों का अधिकरण है ?! ★विरोध के दोनों प्रकार में भेदाभेदप्रतीति बाधक* आप मानते हैं विरोध के दो प्रकार हैं (१) सहानवस्थान स्वरूप जैसे गोत्व-अश्वत्व का (२) परस्परपरिहार कर के रहना जैसे अन्धकार-प्रकाश का । दोनों प्रकार के विरोध की इस व्यवस्था का मूल तो एक ही है - 'एक के कहीं उपलब्ध होने पर वहाँ दूसरे की उपलब्धि न होना ।' प्रस्तुत में, साधारणाकारस्वरूप सामान्य की एवं असाधारणाकारस्वरूप विशेष की एक ही आश्रय व्यक्ति में कथंचित् भिन्न एवं अभिन्न रूप में जब स्पष्ट प्रतीति हो रही है तब यहाँ विरोध का उपरोक्त मूल ही कहाँ है ? व्यक्ति में सामान्य-विशेष की तद्रूपता का होना यही कथंचित् अभेद है और अतद्रूपाकारता का होना ही कथंचित् भेद है; जब तद्रूपता एवं अतद्रूपता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy