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________________ १६२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् एव, नैकं साधारणाऽसाधारणधर्मद्वयात्मकं वस्तु, विरोधात् । अथ येन रूपेण भेदस्तेनापि नैकान्तेन भेद एव, किं तर्हि ? भेदाभेदः । ननु तत्रापि येनाकारेण भेदस्तेन भेद एव इत्यादिवचनादनवस्थाप्रसक्तिरित्यादि न कथं बाधकम् ? - असदेतत्, समानाऽसमानाकारतया बहिः शाबलेयादेः परिस्फुटप्रतिपत्तौ प्रतिभासमानस्यैकत्वेन विरोधाऽसिद्धेः, अन्यथा ग्राह्य ग्राहकसंवित्तित्रितयाध्यासितं कथमेकं संवेदनं स्यात् ? चित्रज्ञानं वा परस्परविरुद्धनीलाद्यनेकाकारं कथमेकमभ्युपगम्येत, येनेदं वचः शोभेत - 'चित्रप्रतिभासाप्येकैव बुद्धि:, बाह्यचित्रविलक्षणत्वात्' [ ] इति ? अथ 'किं स्यात् सा चित्रतैकस्यां न स्यात् तस्यां मत्तावपि ' [प्र० वा० २-२१० पूर्वार्धः ] इति वचनात् साप्यनेकाकारैका नेष्यते इति नायं दोषः । नन्वेवमभ्युपऔर कोई भेदप्रयोजक नहीं है। यदि कहें कि 'हम सर्वथा भेदाभेद नहीं मानते हैं किन्तु कथंचिद् भेदाभेद मानते हैं' तो वहाँ भी विरोध तो तदवस्थ ही रहेगा, क्योंकि जिस आकार से वहाँ भेद है उस आकार से वहाँ अभेद नहीं रहेगा और जिस आकार से वहाँ अभेद रहेगा उस आकार को कर वहाँ भेद नहीं रह सकता, यहाँ भी एकआकारप्रयुक्त भेद और अभेद में विरोध खडा है, इसलिये एक वस्तु साधारण और असाधारण ऐसे विरोधि धर्मयुगल से आलिंगित हो नहीं सकती । यदि कहें कि ' आकारविशेष को ले कर जो भेद है, वह भी सर्वथा भेदरूप नहीं किन्तु कथंचिद् भेदाभेद रूप ही है । तात्पर्य यह है कि "आकारविशेषप्रयुक्त भेद भी अन्य किसी एक "आकार से भेदात्मक और 'तदन्य आकार को लेकर अभेदात्मक - इस प्रकार कथंचित् भेदाभेद होता है । ' - तो यहाँ फिर से वही पुनरावर्त्तन होगा, जिस आकार से भेद है उस आकार को लेकर भेद ही न कि अभेद... इत्यादि पुनः पुनः परम्परा जारी रहने पर अनवस्था दोष होगा । तब कैसे आप कहते हैं कि कथंचित् भेदाभेद में कोई बाधक नहीं है ? B - ★ चित्रज्ञान में एकत्व कैसे ? उत्तर ★ स्याद्वादी : यह प्रश्न गलत है। स्पष्टानुभव में जो शाबलेयादि बाह्य पदार्थ समानाकार रूप से भासता है वही पदार्थ स्पष्टानुभव में असमानाकार रूप से भी भासित होता है। इस प्रकार जब एक ही शाबलेयादि पिंड उभयाकार से भासमान है तब उस में विरोध कैसा ? विरोध न होने पर भी आकारभेद को लेकर आप को वहाँ विरोध मानना ही है तब तो आपके मत में एक ही संवेदन (स्वप्रकाश होने के कारण ) ग्राह्याकार, अर्थग्राही होने के कारण ग्राहकाकार और स्फुरत् स्वरूप होने से संवेदनाकार ये तीन आकार माने गये हैं, वहाँ भी आकारभेद को लेकर संवेदन की एकता के भंग की आपत्ति होगी । उपरांत, बाह्य चित्रात्मक अर्थ को एक न मानते हुये भी तद्विषयक यानी परस्परविरुद्ध नील-पीतादि अनेकाकार चित्रज्ञान को क्यों एक मानते हैं ? जब आप शाबलेयादि पिंड में आकारभेद से विरोध का उद्भावन करते हैं तब आप का यह वचन कैसे शोभास्पद ठरेगा कि - " बाह्यचित्रात्मक अर्थ अनेक होते हुए भी तद्विषयक बुद्धि अपने विषय से विलक्षण स्वरूपवाली होने से चित्राकार प्रतिभासरूप होती हुयी भी एक ही होती है ।" ? बौद्धवादी : प्रमाणवार्त्तिक में कहा है कि - "बुद्धि एक ही हो और उस में चित्रता ( अनेकाकारता) भी मानी जाय, और ऐसी एक बुद्धि के विषयरूप चित्रात्मक द्रव्य भी एक माना जाय तो कैसा ? अरे (चित्र द्रव्य एक न होने से ) हम बुद्धि में भी चित्रता नहीं मानेंगे, क्योंकि आकारवैविध्य ही भेदरूप है ।" इस वचन के आधार पर हम अनेकाकार बुद्धि को भी एक नहीं किन्तु अनेकरूप मानते हैं । अतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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