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द्वितीयः खण्डः - का० - २
विशेषः ;
तन्निरस्तम् बाधकप्रत्ययनिबन्धनस्य मिथ्यात्वस्य सामान्यबुद्धौ प्रतिपादितत्वात् । असदेतत्- यतो यदि नित्यम् व्यापकं च व्यक्तिभ्य एकान्ततो भिन्नमभिन्नं वा सामान्यमभ्युपगम्येत तदा स्याद् यथोक्तबाधकावकाशः । यदा तु सदृशपरिणामलक्षणं सामान्यम्' विसदृशपरिणतिलक्षणस्तु तदात्मकं चैकं वस्तु तदाऽत्यन्तभेदाभेदपक्षभाविदोषानुषङ्गोऽनास्पद एव । अथ साधारणाऽसाधारणरूपस्यैकत्वविरोधोऽत्रापि बाधकम् । यद् यदाकारपरिहारावस्थितस्वरूपं तत् ततो भिन्नम्, यथा घटरूपपरिहारावस्थितस्वरूपः पटः, असाधारणरूपपरिहारावस्थितं चसाधारणं रूपमिति कुतस्तयोरभेदः ? तथाप्यभेदे न किञ्चिदपि भिन्नं स्यात् अन्यस्य भेदव्यवस्थाहेतोरभावात् । कथंचिद् भेदाभेदाभ्युपगमेपि तयोर्येनाकारेण भेदस्तेन भेद एव येन चाभेदस्तेनाप्यभेद जब कि अन्य सामान्य के विना भी व्यक्तियों के साथ सामान्य का योग मान लिया जाय तो वैसा कोइ (बुद्धि में मिथ्यात्वप्रसक्ति जैसा) दोष प्रसक्त नहीं होता है'
यह कुमारिल कथन अब परास्त हो जाता है क्योंकि पूर्वोक्त रीति से अभेदप्रतिभास में अनेक बाधकों का सम्पर्क सिद्ध होने से सामान्यबुद्धि में मिथ्यात्वप्रसक्ति का निरूपण विस्तार से कर दिया है । ★ सामान्यविरोधवाद पूर्वपक्ष समाप्त ★
★ सामान्य सदृशपरिणामस्वरूप है- जैन मत ★
अपोहवादीने उपरोक्त रीति से जो सामान्यवादी के मतमें बाधक निरूपण किया है वह गलत है। कारण, यदि हम न्याय-वैशेषिक - मीमांसक वादियों की तरह सामान्य को एकान्ततः नित्य, व्यापक और व्यक्तियों से एकान्त भिन्न या अभिन्न होने का मानें तब तो उपरोक्त बाधकों को अवकाश प्राप्त हो जाय । किन्तु हम स्याद्वादी तो ऐसा मानते हैं कि वस्तुगत जो सदृशपरिणति है वही सामान्य है, विसदृशपरिणति ही विशेष है, और वस्तु मात्र कथंचित् (एकान्तत: नहीं) तथाविध सामान्य- विशेष उभयात्मक होती है। ऐसा मानने पर जाति-व्यक्ति के एकान्त भेदपक्ष और एकान्त अभेदपक्ष में होने वाले दोषों का स्पर्श यहाँ निरवकाश हो जाता है । कारण, एकान्तभेद पक्ष में जो बाधक हैं वे जैसे उन के अभेद को सिद्ध करता हैं, वैसे ही एकान्त अभेदपक्ष में जो बाधक हैं वे उन के भेद को सिद्ध करते हैं । इस प्रकार समान बलवाले उभयपक्षीय बाधकों से कथंचित् भेदाभेद पक्ष स्वयं फलित होता है ।
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★ समान असमानरूप में एकत्वविरोध की आशंका ★
अपोहवादी :- स्याद्वादी साधारण असाधारण उभयरूपवाली वस्तु में यदि उभयरूपता हो सकती है तो एकरूपता नहीं हो सकती क्योंकि उभयरूपता के साथ एकत्व का विरोध है । इस तरह विरोधरूप बाधक स्याद्वाद में भी प्रसक्त है । वह इस प्रकार : - यह नियम है कि जो जिस आकार को छोड कर रहने के स्वरूपवाली हो वह वस्तु परिहृतआकारवाली चीज से भिन्न होती है । उदा० वस्त्र घटरूप का परिहार करके रहता है तो वह घट से सर्वथा भिन्न है । साधारणस्वरूप सामान्य भी असाधारणरूप को छोड कर रहने वाला है अतः बह असाधारणरूप से अभिन्न कैसे हो सकता है ? बगैर युक्ति के भी आप विरोध की उपेक्षा कर के वहाँ अभेद मानेंगे तो विश्व में कहीं भी भेद को स्थान रहेगा नहीं, क्योंकि परस्पर विरोधरूप बाधक के अलावा
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