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________________ १६० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यक्ति(ते)र्जात्यादियोगेऽपि यदि जातेः स नेष्यते । तादात्म्यं कथमिष्टं स्यादनुपप्लुतचेतसाम् ॥ अत एव-[श्लो० वा. आकृ० श्लो० ३५-३६] "सामान्यं नान्यदिष्टं चेत् तस्य वृत्तेर्नियामकम् । गोत्वेनापि विना कस्माद् गोबुद्धिर्न नियम्यते ॥ यथा तुल्येऽपि भिन्नत्वे केषुचिद् वृत्त्यवृत्तिता। गोत्वादेरनिमित्ताऽपि तथा बुद्धेर्भविष्यति ॥" इति पूर्वपक्षयित्वा यदुक्तं कुमारिलेन [श्लो० वा. आकृ० श्लो० ३७-३८] "विषयेण हि बुद्धीनां विना नोत्पत्तिरिप्यते । विशेषादन्यदिच्छन्ति सामान्यं तेन तद् ध्रुवम् ॥ ता हि तेन विनोत्पन्ना मिथ्याः स्युर्विषयाहते। नत्वन्येन विना वृत्तिः सामान्यस्येह दुष्यति ॥" नहीं हुआ, एवं उस देशमें पहले (व्यक्ति की उत्पत्ति के पहले) उस का अवस्थान भी नहीं था तब उसका व्यक्ति के साथ मिलन कैसे हो गया ?" ____ "न तो आश्रय (व्यक्ति)का नाश होने पर उस का नाश हुआ है, न तो अन्य व्यक्ति की ओर प्रस्थान हुआ है, और न उस व्यक्तिशून्य देश में (व्यक्तिनाश के बाद) उसकी स्थिति है, तब वह कहाँ रही या गई ?" “यदि व्यक्ति में जन्म-विनाश का योग होते हुये भी तदभिन्न जाति में उत्पत्ति नहीं मानते हैं तो ऐसे तादात्म्य को अभ्रान्त चित्तवाले विद्वान कैसे मान लेंगे ?" ★ सामान्यबुद्धि में मिथ्यात्वापत्ति- इष्ट ★ अपोहवादी कहता है कि सामान्य में उपरोक्त बाधक प्रसक्त हैं इसी लिये, कुमारिलने श्लोकवार्तिक में पहले दो श्लोक से पूर्वपक्ष उपस्थित कर के बाद में जो दो श्लोक से उसका खंडन किया है वह भी परास्त हो जाता है । लोक० में पूर्वपक्ष में प्रतिवादी कहता है कि "कुछ ही व्यक्तियों के साथ सामान्य के योग का नियमन करने के लिये अगर सामान्यान्तर आवश्यक नहीं है, क्योंकि कुछ ही व्यक्तियों के साथ सामान्य के योग का नियामक उनका स्वभाव ही है तब गोत्वादि सामान्य के बिना भी गोबुद्धि का नियमन, स्वभाव से क्यों नहीं होता ?" "भिन्नता समान होने पर भी (यानी शाबलेयादि में अश्वादि से एवं बाहुलेयादि पिण्डों से भिन्नता एकरूप होने पर भी) कुछ ही व्यक्तियों में (शाबलेय-बाहुलेयादि में) सामान्य वृत्ति होना माना जाता है तो वैसे ही गोत्वादि रूप निमित्त के न होने पर भी (अनुगताकार) गोबुद्धि की उत्पत्ति भी हो जायेगी।" इस पूर्वपक्ष का परिहार करते हुए कुमारिलने कहा है, "विषय के विना बुद्धि की उत्पत्ति शक्य नहीं है इस लिये व्यक्तियों से पृथक् सामान्य अवश्य मानते हैं।" "यदि बुद्धियाँ विषय के विना ही उत्पन्न हो जायेगी तो जरूर वे विषय के अभाव में मिथ्या बन जायेगी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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