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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१५७ __ यथा, यदि तत् सर्वसर्वगतमभ्युपगम्यते तदा व्यत्यन्तरालेऽप्युपलम्भप्रसक्तिः, न चाभिव्यक्तिहेतुव्यक्त्यभावात् तत्रानुपलम्भः, प्रथमव्यक्तिप्रतिभासवेलायां तदभिव्यक्तस्य सामान्यस्य ग्रहणेऽभेदात् तस्य सर्वत्र सर्वदाऽभिव्यक्तत्वात्; अन्यथाऽभिव्यक्तानभिव्यक्तस्वभावभेदादनेकत्वप्रसक्तरसामान्यरूपत्वापत्तितः तदन्तरालेऽवश्यंभाव्युपलम्भ इति उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेनाभ्युपगतस्य तत्रानुपलम्भादसत्त्वमिति न सर्वसर्वगतं तत् । अथ स्वव्यक्तिसर्वगतं तदिति नायं दोषः, नन्वे प्रतिव्यक्ति तस्य परिसमाप्तत्वाद् व्यक्तिस्वरूपवत् का ज्ञान में मुद्रण करे वही उस ज्ञान में भासित हो सकता है, अर्थात् उस ज्ञान का विषय हो सकता है । सामान्य जंब उत्पादकस्वभाव ही नहीं तब वह कैसे ज्ञान का विषय बनेगा ? फलत: आप का अभिमत सामान्य आकाशकुसुम तुल्य असत् हो जायेगा, कारण सद् वस्तु का लक्षण है 'अर्थक्रियाकारित्व' । जो सत् पदार्थ होता है उससे अगर और कोई अर्थक्रिया नहीं होती तब आखिर ज्ञानोत्पाद रूप अर्थक्रिया तो होती ही है, किन्तु सामान्य में तो वह भी नहीं है तो वह कैसे वस्तुभूत कहा जायेगा ? निष्कर्ष, आप नित्यरूप से सामान्य पदार्थ की सिद्धि के लिये जिस अभेदाध्यवसाय ज्ञान का उल्लेख करेंगे उसका विषय नित्यरूप में अन्य प्रमाण से बाधित होता है । और बाधित होने के कारण सामान्य में निर्बाधज्ञानविषयता ही असिद्ध हो जाने से, हमने जो पहले हमारे अनुमान का हेतु प्रयुक्त किया था वह सिद्ध होता है ।
*जाति की व्यक्तिव्यापकता पर आक्षेप * और भी अनेक विकल्पों से सामान्य पदार्थ का ज्ञान बाधित सिद्ध होता है । जैसे यह प्रश्न कि सामान्य सर्वत्र व्यापक है या नहीं ? यदि जातिरूप सामान्य सर्वव्यक्तियों के भीतर और बाहर सर्वत्र व्यापक होगा तब दूर दूर रहे हुए दो घट के मध्यवर्ती प्रदेश में भी घटत्वसामान्य दृष्टिगोचर होने की आपत्ति होगी । यदि कहें कि- 'जाति व्यक्ति से व्यंग्य होने के कारण, मध्यवर्ती देश में व्यक्ति के न होने पर जाति के दृष्टिगोचर होने की आपत्ति नहीं होगी'- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जाति निरंश होती है इसलिये उस में व्यक्तिस्थानीय प्रदेश में अभिव्यक्ति और मध्यवर्ती प्रदेश में अनभिव्यक्ति ऐसे दो विरुद्ध धर्मों का सम्भव ही नहीं है, अत: जब पहले एक बार व्यक्ति का प्रतिभास हुआ उस वक्त व्यक्ति के माध्यम से जाति की भी अभिव्यक्ति हो गई । तब व्यक्ति-देश में और मध्यवर्ती देश में वही एक अभिन्न जाति विद्यमान होने से सर्वकालीन सर्वदेशीय सामान्य, निरंश होने से सर्वत्र वह अभिव्यक्त हो जाना चाहिये । ऐसा अगर नहीं मानेंगे तो जाति में अभिव्यक्त स्वभाव और अनभिव्यक्तस्वभाव ऐसे दो विरुद्ध स्वभावों का भेद प्राप्त होने से जाति में अनेकत्व की आपत्ति आयेगी, उस के एकत्व का भंग हो जायेगा । उसके परिणामस्वरूप आप के अभिमत सामान्य में असामान्यत्व की आपत्ति आयेगी । उस को टालने के लिये अगर स्वभावभेद का यानी अनभिव्यक्तस्वभाव का निषेध करेंगे तो वहाँ मध्यवर्ती देश में उस के उपलम्भ की आपत्ति अवश्यंभावि हो जायेगी। किन्तु वहाँ उपलम्भ तो होता नहीं है, अत: यह समझ लिया जायेगा कि जाति उपलब्धि के लिये योग्य होने पर भी मध्यवर्ती देश में उपलब्ध नहीं होती है अत: वहाँ उसका अभाव है । इस प्रकार जाति की सर्वत्र व्यापकता का भंग हो जाता है।
यदि कहें कि- 'जाति सर्वत्र व्यापक नहीं है किन्तु अपने आश्रयभूत व्यक्ति मात्र में सीमित होती है, इस प्रकार की व्यापकता होने के कारण मध्यवर्ती देश में उपलम्भ आदि का दोष प्रसक्त नहीं होगा ।'- तो यहाँ दूसरा दोष आयेगा, जाति को आश्रयभूत व्यक्तिमात्र में सीमित मानने पर एक व्यक्ति में रही हुयी जाति
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