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________________ १५८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तस्य भेद एव, अभेदे एकव्यक्तावभिव्यक्तस्य ग्रहणेऽन्यव्यक्तिस्थस्यापि तस्य तत्स्वरूपत्वात् प्रतिभासे तदाधारप्रतिभासमन्तरेण तदाधेयताप्रतिभासस्यानुपपत्तेः- सर्वव्यक्तीनां युगपत् प्रतिभासप्रसक्तिः । कृत्स्नैकदेशवृत्तिविकल्पानुपपत्तेश्वासत्त्वम् । में किंच, A एकव्यक्तिसमवेतं तद् अभिनवोत्पन्नव्यक्तौ निष्क्रियत्वात् न यादि, न च तद् व्यत्युत्पत्तेः प्राक् तत्रासीत् व्यक्तिरहितस्य तस्यावस्थानानभ्युपगमात्; व्यक्त्युत्पत्त्युत्तरकालं तु व्यक्त्यन्तरादनागतस्यापि तस्य तत्र सद्भाव:, सामान्यशून्याया व्यक्तेरसत्त्वाभ्युपगमात्, 'न चांशवत् तत् एकेनांशेन प्रागुत्पन्नव्यक्तिव्यवस्थितमप्यपरेणांशेनोत्पद्यमानव्यक्तिसम्बन्धमनुभवति न च निरंशत्वेऽपि प्राक्तनाधारप - रित्यागेनाधारान्तरे वृत्तिमत् तत्परित्यक्तव्यक्तेरसत्त्वप्रसंगात् न च यत्र प्रदेशे व्यक्तिर्व्यवस्थिता तद्देशेन तस्य सम्बन्धस्तद्वयत्तत्यानुसम्बध्यते इत्याद्यनेकबाधकसद्भावाद् व्यक्तिभिन्नसामान्यपक्षे कथमबाधितप्रत्ययविषयत्वात् तत्सत्त्वम् ? ! यैरपि - [ श्लो० वा० आकृ० श्लो० ४७ ] उसी में सीमित हो जाने से अन्य व्यक्ति में वही जाति नहीं पहुँच पायेगी, अतः आश्रयभूत व्यक्तिभेद की तरह आश्रित जाति में भी आश्रयभेदमूलक भेद प्रसक्त होगा । यदि प्रतिव्यक्ति उस का भेद नहीं किन्तु अभेद ही मानेंगे तब यह दोष होगा कि एक व्यक्ति में जब वह अभिव्यक्त हो कर गृहीत होगी तब उस के एकमात्र अभिव्यक्त स्वरूप के कारण अन्यव्यक्तियों में भी उसका प्रतिभास अनिवार्य बनेगा, यहाँ दोष यह है कि आश्रयभूत व्यक्ति के प्रतिभास के बिना तदाश्रित जाति का अवभास होता नहीं है इसलिये जब सर्वव्यक्तिगत सामान्य गृहीत होगा तब एक व्यक्ति के दृष्टिगोचर होने पर सभी व्यक्ति का एक-साथ दर्शन होने की आपत्ति आयेगी । ★ एकदेश- सर्वदेशवृत्तित्व के विकल्प ★ सामान्य के बारे में दो ऐसे विकल्प प्रश्न हैं जिन का समीचीन उत्तर भी नहीं है । व्यक्ति में रहनेवाली जाति अपने सर्वांश से वहाँ समाविष्ट हो जाती है या एकांश से ? अगर सर्वांश से वह एक व्यक्ति में समाविष्ट हो जायेगी तो अन्यव्यक्तियों में जातिशून्यता की आपत्ति होगी । यदि एकांश से रहने का मानेंगे तो जाति में सावयवत्व की आपत्ति होगी और यह प्रश्न आयेगा कि जाति अपने उस अंश ( = अवयव) में सर्वांश से समाविष्ट होती है या एकांश से ? ऐसी विकल्पपरम्परा चलती रहेगी उसका अन्त नहीं आयेगा । जाति के बारे में और भी अनेक बाधक हैं, (A) किसी भी एक व्यक्ति में समवेत जाति स्वयं तो निष्क्रिय होती है तो अभिनवजात व्यक्ति में वह कैसे चली जायेगी ? (B) अभिनवजात व्यक्ति उत्पन्न होने के पहले वह वहाँ थी यह भी नहीं कह सकते क्योंकि व्यक्ति के विना वहाँ उस की उपस्थिति को आप भी नहीं मानते हैं । अब वह अन्यव्यक्ति से वहाँ नहीं चली आती, फिर भी व्यक्ति की उत्पत्ति के बाद ऐसी ही अगम्य रीति से वहाँ उपस्थित हो जाती है ऐसा मानना पडेगा क्योंकि सामान्यरहित व्यक्ति तो सत्ताशून्य होने से असत् ही मानी जाती है । (C)वह सावयव भी नहीं है कि जिस से एक अंश से पूर्वोत्पन्न व्यक्ति के साथ जुडी रहे और अन्य अंश से अभिनवजात व्यक्ति के साथ सम्बन्धानुभव करे ! (D) निरवयव होने पर भी ऐसा मानना पडेगा कि पूर्वोत्पन्न व्यक्ति का त्याग किये बिना ही वह किसी अगम्य रीति से नवजात व्यक्ति से सम्बन्ध कर लेती है, क्योंकि सामान्य सम्बन्ध के विना उस नवजात व्यक्ति को असत् मानने की आपत्ति खडी हो जायेगी । ★. दृष्टष्य - प्रमाणवार्त्तिके पृ० ३०४, तृ० परि० लो० १५२ पूर्वार्ध - १५३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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