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________________ १५६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वा सम्बन्धासिद्धिः । एककार्यकर्तृत्वलक्षणमपि सहकारित्वं नित्यानामसम्भवि तदवस्थाभाविनः स्वभावस्य प्राग् ऊर्ध्वं च तदवस्थानसद्भावात्, अभावे वाऽनित्यत्वम् स्वभावभेदलक्षणत्वात् तस्य । अजनकस्वभावत्वेन न कदाचिदपि तज्ज्ञानम्, यो ह्यजनकस्वभावः सोऽन्यसहितोऽपि न तद् जनयति, यथा शालिबीजं क्षित्यायविकलसामग्रीयुक्तमपि कोद्रवांकुरम्, अजनकस्वभावं च चेत् सामान्यम् परामर्शज्ञाने न प्रतिभासेत जनकाकारार्पकस्यैव ज्ञानविषयत्वात्, ज्ञानलक्षणमपि कार्यमनुपजनयदवस्तु स्याद् अर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वाद् वस्तुनः। तदेवं सामान्यस्य नित्यत्वेन तद्विषयस्य ज्ञानस्य बाध्यमानतयाऽवाधितज्ञानविषयत्वमसिद्धम्। होता है फिर भी चित्स्वरूप होने के कारण उससे समान भी होता है, यहाँ अनुभवज्ञान एक होते हये भी उस में समानज्ञानजनकत्व और असमानज्ञानजनकत्व रूप दो आकार से अधिष्ठित होता है; ठीक ऐसे ही भिन्न भिन्न व्यक्तियों में भी परस्पर एकरूपता हो सकती है क्योंकि वे भी सामानाकाराध्यवसायिज्ञानजनकत्व और असमानाकाराध्यवसायिज्ञानजनकत्व ऐसे दो रूप से अधिष्ठित हैं । *सामान्यखंडन के लिये विविध तर्क* अब सामान्यविरोधी प्रतिवादी विस्तार से, सामान्य की निधिज्ञानविषयता का खंडन करने की चेष्टा करता है - अनुगताकारज्ञानजनकता यही एक मात्र सामान्य का जो स्वभाव है वहाँ दो विकल्प हैं, अनुगताकारज्ञानजनकता सहकारिसापेक्ष है या सहकारिनिरपेक्ष ? अगर कहें कि सहकारिनिरपेक्ष है तब उस को ज्ञानोत्पाद के लिये सहकारिअपेक्षा व्यर्थ होने के कारण अपने स्वभाव के अनुरूप सतत अनुगताकार ज्ञानोत्पत्ति होने की आपत्ति आ पडेगी। सहाकारीसापेक्षता का दूसरा विकल्प लिया जाय तो वहाँ सहकारीकृत उपकार के अलावा और तो कोई सापेक्षता घटती नहीं, तब दो प्रश्न हैं कि वह उपकार सामान्य से भिन्न है या अभित्र है ! अभिन्न मानेंगे तो उस उपकाररूप कार्य से अभिन्न सामान्य भी सहकारी का कार्य हो जाने से उसमें अनित्यत्व की आपत्ति आयेगी । और भिन्न मानेंगे तो वह 'सामान्य का उपकार' सिद्ध करने के लिये दोनों के बीच आवश्यक कोई भी सम्बन्ध घटेगा नहीं क्योंकि वैसा कोई सम्बन्ध सिद्ध नहीं है। यदि कहा जाय- 'हम सहकारिकृत उपकाररूप सापेक्षता नहीं मानते किन्तु सहकारी के साथ मिल कर एक कार्य उत्पन्न करने रूप सहकारीसापेक्षता मानते हैं।' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि निम्नलिखित विकल्पों से फलित होगा कि वैसी सहकारीसापेक्षता सम्भवहीन है । विकल्प ये हैं कि- सहकारिमिलनअवस्था में उस का जो एककार्यकर्तृत्वरूप स्वभाव है वह उस अवस्था के पूर्व और पश्चात् काल में भी अगर रहेगा तो फिर से सदाकार्योत्पत्ति की आपत्ति होगी । अगर पूर्व-पश्चात् काल में वह स्वभाव नहीं है ऐसा मानेंगे तब तो फिर से अनित्यत्व की आपत्ति आयेगी क्योंकि स्वभावभेद से वस्तुभेद प्रसक्त होता है और वस्तु अगर पलट गई तो यही अनित्यता है । यदि कहें कि सामान्य में जनकस्वभावता ही नहीं है तब तो वह किसी ज्ञान का भी जनक न होने से उसका ज्ञान ही किसी को नहीं होगा तब उसकी सिद्धि कैसे होगी ? जिस में स्वत: जनक स्वभाव नहीं होता वह परत: यानी सहकारिसंनिधान में भी ज्ञानादि का जनक नहीं बन सकता, जैसे शालि का बीज कोद्रवांकुरजनकस्वभावी नहीं है तो वह क्षिति-जलादि परिपूर्णसामग्री के मध्यवर्ती होते हुये भी कोद्रवांकुर का उत्पाद नहीं करता है। उपरांत, आप पहले एकाकारपरामर्शहेतु के रूप में सामान्य की सिद्धि कर आये हैं किन्तु जब सामान्य में जनक स्वभाव ही नहीं तब वह परामर्शज्ञान में भासित भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि ऐसा नियम है कि जो ज्ञान का उत्पादक होते हुये अपने आकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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