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द्वितीयः खण्डः - का० - २
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एकाकारपरामर्शज्ञानस्य स्वत एवाभेदाध्यवसायरूपत्वादेकत्वमिति नाऽनवस्था, तज्जनकानुभवानां त्वेकाकारपरामर्शज्ञानहेतुत्वादेकत्वम् अनुभवनिमित्तव्यक्तीनां च तथाभूतानुभवजनकत्वेपोपचरितं तत् । नन्वेवं व्यक्तीनामेवाव्यवहितैकाकारपरामर्शहेतुत्वं वस्तुभूतं सामान्यमभ्युपगन्तव्यम् किं पारम्पर्यपरिश्रमेण ? यया हि प्रत्यासत्त्या प्रतिव्यक्ति भिन्नानुभवा एकं परामर्शज्ञानं जनयन्ति तयैव प्रतिनियता व्यक्तयः स्वगतसमानाकारार्पकत्वेन तद् जनयिष्यन्तीति न कश्चिद् दोषः । यथा ह्यनुभवज्ञानं भिन्नमपि परामर्शज्ञानं प्रतिनियतैकाकारतया विलक्षणं चिद्रूपतया तु समानं जनयदपि समानाऽसमानजनकाकारद्वयाध्यासितमप्येकम् तथा व्यक्तयोऽपि समानाऽसमानजनकाकाराध्यावसायिप्रत्ययजनकं रूपद्वयं बिभ्राणा नैकरूपतया विरोत्स्यन्त इति ।
अथ सामान्यस्यानुगताकारज्ञानजनकत्वैकस्वभावत्वात् सर्वदा तज्ज्ञानप्रसक्तिः अनपेक्षस्याऽपेक्षा - योगात्, सहकार्यपेक्षजनकत्वे वा सहकारिकृतोपकारस्य ततोऽभेदे तद्वत् कार्यत्वेनाऽनित्यताप्रसक्तिः, भेदे रूप एकसाधनता के जरिये अभेदाध्यवसाय द्वारा अभेदप्रतिभास की उपपत्ति कर सकेंगे तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि वाह - दोहनादि कार्यों से उत्पन्न विज्ञान भी एक नहीं किन्तु तत्तत् कार्यव्यक्ति विषयक विज्ञान भी पृथक् पृथक् ही होता है । अगर उन विज्ञानों में भी एकाकारपरामर्शरूप ( इदं ज्ञानमिदमपि ज्ञानम् ऐसे) ज्ञान की जनकता के जरिये अभेदाध्यवसाय संगत किया जाय तो यह भी शक्य नहीं है क्योंकि एकाकारपरामर्श भी तत्तद्विज्ञानव्यक्ति विषयक पृथक् पृथक् होता है । अगर उन परामर्शो में भी अन्य एकपरामर्शज्ञान की जनता के द्वारा अभेदाध्यवसाय को संगत करने जायेंगे तब तो फिर से अनवस्था दोष प्रसक्त होगा ।
यदि कहें कि 'एकाकार परामर्श के द्वारा अभेदाध्यवसाय की संगति करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि एकाकारपरामर्शज्ञान स्वयं ही अभेदाध्यवसाय रूप है अतः उन के अभेदाध्यवसाय के लिये अन्य परामर्शज्ञान की आवश्यकतामूलक होने वाली अनवस्था को यहाँ कुछ अवकाश ही नहीं है । एवं उन परामर्शों के जनक विज्ञानात्मक अनुभवों में भी एकाकारपरामर्शजनकता के जरिये अभेदाध्यवसाय और तन्मूलक एकत्व उपपन्न होगा, तथा उन अनुभवों के निमित्तभूत वाह - दोहनादि व्यक्तियों में (या गो- बलीवर्दादि व्यक्तियों में) पूर्वोक्त अनुभवों की जनता मूलक अभेदाध्यवसाय के द्वारा उपचरित एकत्व की उपपत्ति हो सकेगी - इस प्रकार एककार्यतारूप सादृश्य अथवा एकसाधनतारूप सादृश्य को अभेदप्रतिभास का निमित्त बता सकते हैं ।
सामान्यवादी :- अरे ! ऐसी परम्परा की माथापच्ची की क्या जरूर है, व्यक्ति-व्यक्ति में ही एकाकारपरामर्श के हेतुरूप में सिद्ध होने वाले एक वास्तविक ( जातिरूप) सामान्य को मान लेने में क्यों झीझकते हैं ? प्रत्येक व्यक्तियों से अपना अपना भिन्न भिन्न अनुभव और उन अनुभवों से एकाकार परामर्श ज्ञान की उपपत्ति के लिये, इस प्रकार परम्परया भिन्न भिन्न व्यक्तियों से एकाकार परामर्श ज्ञान की उपपत्ति के लिये कुछ न कुछ प्रत्यासत्ति (संबंधसम्पादक धर्म) तो आपको दिखाना ही होगा, क्योंकि एक प्रत्यासत्ति के विना परम्परया एकाकारपरामर्शजनकता भी घट नहीं सकती; तब उसी एक प्रत्यासत्ति (को सामान्यपदार्थ के रूप में स्वीकार करके उस) के द्वारा साक्षात् ही तद् तद् व्यक्तियों से, अपने में परस्पर विद्यमान समानाकार का अर्पण परामर्श को करते हुए एकाकार परामर्श की उत्पत्ति की जा सकती है, इस में अनवस्था आदि किसी भी दोष को अवकाश नहीं है और दूसरी ओर एक सामान्य भी सिद्ध हो जायेगा । यह ध्यान में लेना चाहिये कि जैसे अनुभवज्ञान से ऐसा परामर्शज्ञान उत्पन्न होता है जो अपने विशिष्ट विलक्षण एकाकाररूपता के कारण अनुभवज्ञान से भिन्न
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