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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् ‘एककार्यतासादृश्येनैकत्वाध्यवसायादेकप्रतिभास' इति चेत् ? वाह - दोहादिकार्यस्य प्रतिव्यक्तिभेदात् कथमभेदः कार्याणाम् ? इति तत्राप्यपरैककार्यतासादृश्येनैकत्वाध्यवसायेऽनवस्थाप्रसक्तेः, एककार्यतया भावानामप्रतीतेः कथमभेदाध्यवसायादेकः प्रतिभासः येनैककार्यकारित्वम् अतत्कारिपदार्थविवेको वा सामान्यं तद्व्यवहारनिबन्धनं स्यात् ? एकसाधनतयाऽभेदोप्यत एव न सामान्यम्, वाहदोहादेरेकार्थत्वाभावेप्येकविज्ञानजनकत्वेनाभेदाध्यवसाये तद्विज्ञानस्यापि प्रतिव्यक्तिभिन्नत्वात् एकाकारपरामर्शज्ञानजनकत्वेनाऽभेदाध्यवसाये तत्परामर्शस्यापि प्रतिव्यक्ति भिन्नत्वात् अपरपरामर्शजनकत्वेनाभेदाध्यवसायेऽनवस्था । अथ बात यह है कि निर्बाधरूप से उत्पन्न होने वाली सदृशाकार प्रतीति अगर एक सामान्यरूपनिमित्त के विना ही उत्पन्न होने का मानेंगे तो वह प्रतीति भ्रान्त बन जायेगी ( और सामान्यमूलक जो प्रवृत्ति - निवृत्ति व्यवहार होता है वह भी ठप हो जायेगा ) । अतः, निर्बाध विशेषाकार ज्ञान का जैसे विशेषरूप ( स्वलक्षणात्मक) आलम्बन मान्य है वैसे ही सदृशाकार ज्ञान का निमित्त बनने वाला सामान्य पदार्थरूप पारमार्थिक आलम्बन भी स्वीकार लेना चाहिये । सारांश यह है कि विशेष की तरह सामान्य भी वास्तव पदार्थ है, उसका अस्वीकार करने पर समानाकार प्रतीति की संगति नहीं की जा सकेगी । ★ एककार्यतारूप सादृश्य से समानप्रतिभास में अनवस्था★ अपोहवादी :- समानप्रतिभास का कोई वस्तुभूत निमित्त नहीं है ऐसा हमारा कहना नहीं है । वस्तुभूत निमित्त होता है, किन्तु वह आपका माना हुआ जातिरूप सामान्य नहीं किन्तु एककार्यतारूप सादृश्य होता है । जैसे एक कमरे में दश दीप जलाया जाय तो उन सभी का प्रकाशरूप कार्य एक ही होता है, इस एककार्यतारूप सादृश्य के कारण एक अध्यवसाय बन जाता है कि ये सब दीप एक ही हैं, और इस अध्यवसाय से ही उन दीपों में अभेदप्रतिभास होता है । १५४ सामान्यवादी :- यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि सकल गोव्यक्तियों में एककार्यतारूप सादृश्य होता नहीं, बलीवर्दादि का कार्य भारवहन होता है और गौआ सब दूध देने का ( दोहन) कार्य करती है । इस प्रकार बलीवर्द और गौआ आदि भिन्न भिन्न व्यक्तियों में एककार्यतारूप सादृश्य ही कहाँ है ? अगर कहें कि 'भारवहन दोहन आदि कार्य हालाँ कि एक नहीं है किन्तु उन कार्यों का एक सदृशकार्य होगा, जो पूर्वं कार्यों में एकत्व का अध्यवसाय निपजायेगा' - तो यह भी गलत है क्योंकि आप के अभिमत एक कार्य की परीक्षा करने पर वहाँ भी जब वह दोहादि की तरह अनेक कार्य सिद्ध होंगे तब उन में फिर से एककार्यता की सिद्धि के लिये वाह - दोहादि कार्यों के कार्यों में भी एकत्व अध्यवसाय के लिये उन के कार्यों में एककार्यतारूप सादृश्य जताना पडेगा । इस प्रकार कार्य कार्य का सीलसीला चलेगा, उसका अन्त न आने से अनवस्था दोष प्रसक्त होगा । फलतः व्यक्तियों में एककार्यतारूप सादृश्य की प्रतीति न होने से अभेदाध्यवसाय और उस के द्वारा एक रूपप्रतिभास की उपपत्ति ही जब शक्य नहीं है तब एककार्यकारित्व को या अतत्कार्यकारिव्यावृत्ति रूप अपोह को सामान्यरूप मान कर तन्मूलक समानाकार व्यवहार की उपपत्ति कैसे हो सकेगी ? जिन दोषों के कारण एककार्यकारित्वरूप सामान्य का होना असंगत है, उन्हीं दोषों के कारण एकसाधनता (यानी एक विज्ञानरूप कार्य की जनकता ) को भी सामान्यरूप नहीं माना जा सकता । यदि कहें कि - 'वाह - दोहनादि कार्यों में एकार्थत्व यानी (एक: अर्थ: कार्यरूपो येषां ते एकार्थाः तेषां भावः एकार्थत्वम् ) एककार्यता न होने पर भी समानाकार एक विज्ञानजनकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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