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________________ १५३ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ तथाहि - परेणाप्येवं वक्तुं शक्यम् - अभेदाऽविशेषेऽप्येकमेव ब्रह्मादिस्वरूपं प्रतिनियतानेकनीलाद्याभासनिबन्धनं भविष्यतीति किमपररूपादिस्वलक्षणपरिकल्पनया ? अथ रूप-रसायाभासज्ञानस्य तद्रूपस्वलक्षणमन्तरेणापि सम्भवेऽपरस्यार्थक्रियानिबन्धनार्थव्यवस्थापकस्याभावान प्रवृत्त्यादिलक्षणो व्यवहार इति स्वलक्षणाकारज्ञानस्य तनिमित्तत्वेन तव्यवस्थापकत्वम् । एतत् सदृशाकारज्ञानेऽपि समानम् । न हि सामान्यमन्तरेणाऽपि भिन्नानामेककार्यकर्तृत्वं न सम्भवतीति तत् परिकल्प्यते, किन्तु समानाकारप्रत्ययोऽबाधितरूपः तथाभूतविषयव्यतिरेकेणोपजायमानो मिथ्यारूपः प्राप्नोतीति विशेषप्रत्ययस्येवाऽबाधितरूपस्य समान्प्रत्ययस्यापि सामान्यमालम्बनभूतं निमित्तमभ्युपगन्तव्यमित्यस्ति वस्तुभूतं सामान्यम्, अन्यथा समानप्रतिभासाऽयोगात् । होने पर कैसे वह कार्य होगा ? तो इसका उत्तर गडूची आदि औषधों में देखा जा सकता है। गडूची आदि अनेक ऐसे औषध और उपवास आदि उपाय हैं जिन में कोई अनुगत धर्म न होने पर भी ऐसा एकविध बुखार-शमन का कार्य होता है जो रोटी-चावल आदि से नहीं होता । फिर भी आप वहाँ रोटी-चावल आदि से व्यावृत्त ऐसा कोई एक सामान्य धर्म गडूची-उपवास आदि में नहीं मानते तो फिर यहाँ वैसा आग्रह क्यों ? सामान्यवादी :- यह प्रश्न अनुचित है क्योंकि गडूची आदि में भी हमें वैसा एक साधारण निमित्त अभीष्ट ही है [चाहे वह जातिरूप हो या अखंडोपाधिरूप या कैसा भी !] । किन्तु आप यदि किसी साधारण निमित्त के विना ही भिन्न भिन्न देश-कालादि में रही हुयी अनेक व्यक्तियों में नियत रूपवाली समानाकार बुद्धि की उत्पत्ति होने का मानेंगे तब तो व्यक्ति के बारे में भी विना किसी असाधारणनिमत्त ही असाधारणाकार (=विशेषाकार) बुद्धि की उत्पत्ति होने की आपत्ति प्रसक्त होगी । फलत: आप के मत में स्वलक्षण (=असाधारण व्यक्ति) की भी व्यवस्था लुप्त हो जायेगी। ★सदृशाकार ज्ञान से सामान्यव्यवस्था देखिये - आप कहते हैं वैसा ब्रह्मादि-अद्वैतवादी भी कह सकता है, ब्रह्मादि एक ही वस्तु अभिन्न-अखंड एकरूप होते हुये भी व्यवस्थित नीलप्रतिभास-पीतप्रतिभास आदि अनेक भिन्न भिन्न प्रतिभासों का निमित्त बन सकती है, तब भिन्न भिन्न प्रतिभास के निमित्तरूप में भिन्न भिन्न नीलरूपस्वलक्षण या पीतरूप स्वलक्षणादि की कल्पना क्यों की जाय ? अपोहवादी :- रूपस्वलक्षण, रसस्वलक्षणादि बाह्य पृथक् पृथक् निमित्त के विना ही यदि रूपावभासि या रसावभासि विज्ञान की उत्पत्ति मान्य रखी जाय तब तो रूपविज्ञान से रूपार्थी का बाह्यरूप के हानोपादान के लिये जो प्रवृत्ति-निवृत्ति स्वरूप व्यवहार होता है वह नहीं बन सकेगा, क्योंकि रूपादिजन्यत्वेन अभिमत रूपादिसाध्य अर्थक्रिया का साधक बन कर अर्थव्यवस्था करने वाला न तो बाह्य रूपादि है, न तो अन्य कोई अर्थ है । अकेले ब्रह्म से तो भिन्न भिन्न अर्थक्रिया हो नहीं सकती, न प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप पृथक् पृथक् व्यवहार भी सिद्ध हो सकता है ! अत: स्वलक्षणाकार (=विशेषाकार) ज्ञान स्वतंत्र स्वलक्षणमूलक सिद्ध हो कर स्वतन्त्र स्वलक्षण की व्यवस्था (=सिद्धि) कर देता है। सामान्यवादी :-विशेषाकार ज्ञानसे स्वलक्षणरूप विशेष की व्यवस्था होती है इसी तरह सदृशाकार ज्ञान से सदृशाकार सामान्य की भी व्यवस्था अनिवार्य है। एक सामान्य पदार्थ के विना भिन्न भिन्न व्यक्तियों में एककार्यकारिता घट नहीं सकती- इतने मात्र से हम सामान्य की कल्पना कर लेते हैं- ऐसा मत मानिये, किन्तु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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