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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १५१ बर्बाध्यत इति वक्तुं युक्तम्, सर्वत्र देशादावानुगतप्रतिभासस्याऽस्खलद्रूपस्य तथाभूताकारव्यवहारहेतोर्दर्शनात् । अतो व्यावृत्ताकारानुभवांशाऽनधिगतमाकारमवभासयन्त्यक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यबाधितरूपा बुद्धिरनुभूयमानाऽनुगताकारं वस्तुभूतं सामान्य व्यवस्थापयति । " न च शाबलेयादिप्रतिनियतव्यक्तिरूपविवेकेन साधारणरूपस्यापरस्य भेदेनाऽप्रतिभासनाद् व्यक्तिरूपाद् भिन्नमभिन्नं वा सामान्यं नाभ्युपगन्तुं युक्तमिति शक्यं वक्तुम्, यतः समानदेशसमानेन्द्रियग्राह्याणामपि वाताऽऽतप-घट-पटादीनां प्रतिभासभेदानापरं भेदव्यवस्थापकम् स च शाबलेयदिव्यक्ति-जात्योरपि समस्ति, शाबलेयादिव्यक्तिप्रतिभासाभावेऽपि बाहुलेयादिव्यक्तिप्रतिभासे 'गौ!ः' इति साधारणावभासस्य तद्व्यवस्थानिबन्धनस्य संवेदनात् । एकान्ततो व्यत्यभेदे तु सामान्यस्य शाबलेयादिव्यक्तिस्वरूपस्येव तदभिन्नसाधारणरूपस्यापि बाहुलेयादिव्यक्त्यन्तरे प्रतिभासो न स्यात्, अस्ति च व्यत्तयन्तरेपि 'गौ!ः' इति साधारणरूपानुभवः, अतः कथं न भिन्नसामान्यसद्भावः ? अन्य अंश को उद्भासित करने वाली दूसरी अनुगताकारबुद्धि सर्वजनअनुभवसिद्ध है, गोवृंद के साथ जब इन्द्रियसंनिकर्ष होता है तब यह अनुगताकार बुद्धि उत्पन्न होती है और जब उस के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष नहीं रहता तब वह प्रत्यक्षात्मक अनुगताकारबुद्धि उत्पन्न नहीं होती- इस प्रकार यह अनुगताकार बुद्धि, विशेषग्राहिबुद्धि की भाँति इन्द्रिय के अन्वय और व्यतिरेक का व्यवस्थित अनुसरण करती है । उस को मिथ्या सिद्ध करने वाला और कोई प्रमाण भी नहीं है इस लिये वह बुद्धि अबाधित है । निर्बाध बुद्धि वस्तु की व्यवस्थापक (=सिद्धिकारक) होती है अत: सामान्याकार निर्बाध बुद्धि भी वास्तविक सामान्य पदार्थ को सिद्ध करती है । इसलिये अपोहवादी का हेतु असिद्ध है। अपोहवादी :- जब भी देखते हैं तो शाबलेय आदि अमुक नियत असाधारण व्यक्तिरूप ही नजर में आती है, उस से पृथक् होते हुए अन्य किसी साधारण रूप का पृथक् रूप से प्रतिभास वहाँ नहीं होता, अत: व्यक्ति से भिन्न सामान्य पदार्थ का अंगीकार अनुचित है, एवं व्यक्ति से अभिन्न सामान्य को मानने का कुछ विशेष फल नहीं है क्योंकि व्यक्तिअभिन्न सामान्य तो व्यक्तिरूप ही है, अर्थात् यह सामान्यात्मक नहीं किन्तु विशेषरूप होगा। सामान्यवादी :- यह कथन अनुचित है । प्रतिभासभेद ही सर्वत्र भेदसाधक होता है । वात और आतप तथा घट और वस्त्र समानदेश में एक ही इन्द्रिय से गृहीत होते हैं अत: वहाँ देशभेद या ग्राहकेन्द्रियभेद न होने पर भी प्रतिभासभेद होने से वस्तुभेद सिद्ध होता है । आप कहते हैं व्यक्ति से भिन्न जाति का भिन्न प्रतिभास नहीं होता यह गलत बात है क्योंकि शाबलेयादि व्यक्ति और गोसामान्य का भेदप्रतिभास प्रसिद्ध है, जैसे देखिये-जब दूर से'वह शाबलेय है या बाहुलेय ?' ऐसा व्यक्ति का प्रतिभास न होने पर भी नजर के सामने शाबलेयादिव्यक्तिसमूह उपस्थित रहने पर 'यह गौ है यह भी गौ है' ऐसा भेदव्यवस्थाकारी गोसाधारण का अवभास अनुभवसिद्ध है। "सामान्य जैसा कुछ है ही नहीं, अगर है तो वह व्यक्ति से सर्वथा अभिन्न ही है" यह बात भी ठीक नहीं है क्योंकि सामान्य यदि व्यक्ति से सर्वथा अभिन्न होता तब शाबलेयादिव्यक्तिस्वरूप से सर्वथा अभिन्न साधारणरूप वाले सामान्य का बाहुलेयादि अन्य व्यक्तियों में भी जो अनुगताकार प्रतिभास होता है वह नहीं घटेगा । जिस गोत्वादि सामान्य का शाबलेयादि व्यक्तियों में अनुभव होता है उसी गोत्वादि का बाहुलेयादि अन्य व्यक्तियों में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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