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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्वमेदाध्यवसायित्वलक्षणो हेतुरसिद्धः, भेदेवभेदाध्यवसायित्वस्य तत्रानुपपत्तेः । न च सामान्यस्याऽ. मिनस्य वस्तुरूपस्याभावाचासिद्धता हेतोः, 'गौौँ' इत्यबाधितप्रत्ययविषयत्वेन तस्याभावाऽसिद्धेः । अथाऽवाधितप्रत्ययविषयस्याऽपि तस्याभावः तर्हि विशेषस्याप्यभावप्रसक्तिः तयाभूतप्रत्ययविषयत्वव्यतिरेकेणापरस्य तद्वयवस्थानिबन्धनस्य तत्राप्यभावात् । यथा हि पुरोव्यवस्थितगोवर्गे व्यावृत्ताकारा बु. द्धिरुपजायमाना सैव लक्ष्यते । न चानुगतव्यावृत्ताकारा बुद्धिवर्यात्मकवस्तुव्यतिरेकेण घटते, अबाधितप्रत्ययस्य विषयव्यतिरेकेणापि सद्भावाभ्युपगमे ततो वस्तुव्यवस्थाऽभावप्रसक्तः । न चानुगताकारत्वं बुद्धेशाब्द प्रतीति भ्रान्त होती है । भ्रान्तत्व की सिद्धि के लिये जो प्रमाण दिया गया था उसको उपस्थित कराते हुए अब व्याख्याकार अपोहवाद के निरसन का प्रारम्भ करते हैं।
अपोहवादीने कहा था - अतत्स्वरूप पदार्थ में जो तत् ऐसी प्रतीति होती है वह भ्रान्त होती है, जैसे मरुदेश में अजलस्वरूप सूर्यकिरणों में जल की प्रतीति । शाब्दिक प्रतीति भी भित्र पदार्थों में अभेद की प्रतीतिरूप होने से प्रान्त है और भ्रान्त होने से शाब्दिक प्रतीति निर्विषय होती है। - इस के प्रति विध्यर्थवादी कहता है, 'भिन्न पदार्थों में अभेद की प्रतीति' रूप हेतु शाब्दिक प्रतीति में असिद्ध है। अत: वहाँ भ्रान्तत्व साध्य सिद्ध नहीं हो सकता । हेतु इस लिये असिद्ध है कि शाब्दिक प्रतीति भेद में अभेदाध्यवसायिनी नहीं होती [किन्तु अभेद में अभेदाध्यवसायिनी होती है ।]
अपोहवादी :- अभेदाध्यवसायी बुद्धि का विषयभूत अभिन्न सामान्य पदार्थ वास्तविक नहीं है (काल्पनिक है) इस लिये वह बुद्धि अभेदशून्य में (भेद में) ही अभेदाध्यवसायी होने से हमारा हेतु असिद्ध नहीं है ।
सामान्यवादी :- 'यह गाय है यह गाय है। इस प्रकार सभी लोगों को अभेद की निर्बाध-अभ्रान्त प्रतीति अनुभव सिद्ध है इसलिये अभिन्न सामान्य पदार्थ निर्बाधप्रतीति का विषय होने से काल्पनिक नहीं वास्तविक है । अत: अपोहवादी का हेतु असिद्ध ही है। यदि निर्बाधप्रतीति का विषय होने पर भी सामान्य को आप असत् मानेंगे तो अपोहवादी अभिमत स्वलक्षणात्मक विशेष पदार्थ भी असत् मानना होगा । कारण, 'यह वास्तविक है। ऐसी व्यवस्था करने के लिये जो सर्वसम्मत निधिप्रतीतिविषयत्व धर्म होना चाहिये वह तो जैसे विशेष में है वैसे सामान्य में भी है । तथा, निधिप्रतीतिविषयत्व को छोड़ कर अन्य किसी धर्म को व्यवस्था-कारक मानेंगे तो वह सामान्य में नहीं रहेगा वैसे ही विशेष में भी नहीं होगा । जैसे संमुख अवस्थित गोवृन्द में, अश्वादि से व्यावृत्त आकार को लक्षित करने वाली, भेदबुद्धि उदित होती है, वैसे ही 'यह गाय है वह भी गाय है' ऐसी अनुगताकार को लक्षित करती हुयी सामान्य बुद्धि भी उदित होती है । अत एव वस्तु सामान्य-विशेषोभयात्मक मानना जरुरी है क्योंकि सामान्य-विशेषोभयात्मकता के विना ऐसी अनुगत-व्यावृत्त उभयाकार बुद्धि का उदय शक्य नहीं । वस्तु के विना भी उस के विषय में निर्वाधप्रतीति हो सकती है ऐसा अगर मानेंगे तब तो 'यह वस्तु है और यह अवस्तु है' इत्यादि व्यवस्था का ही भंग प्रसक्त होगा। _ 'भेदबुद्धि की अनुगताकारता अन्य प्रमाण से बाधित है' ऐसा कहना उचित नहीं है । कारण, सर्व देश-काल में एकजातीय पदार्थों में सामानाकार व्यवहार होता आया है और इस व्यवहार का निमित्तभूत अनुगताकार बोध भी अस्खलितरूप से चला आता दिखाई रहा है । सारांश, व्यावृत्ताकार बुद्धि आंशिक बुद्धि है जो वस्तु के विशेषात्मक एक अंश का अवगाहन करती है किंतु सामान्यात्मक अन्य अंश का अवगाहन नहीं करती, उस
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