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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १४९ प्रवृत्तिः ? तस्मिन्नप्यनर्थित्वे तदभावात् अर्थित्वे च सति दर्शनविरहेऽपि भ्रान्तेः सद्भावात् प्रतिबन्धाभावात् तु तत्र विसंवादः । यदा तु विकल्पानां स्वरूपनिष्ठत्वान्नान्यत्र प्रतिबन्धसिद्धिस्तदा स्वसंवेदनमात्र परमार्थसतत्त्वम्, तथापि कथं 'समयपरमार्थविस्तरः' (१४-४) इति सत्यम् ? [सामान्य-विशेषात्मकोऽर्थः शब्दवाच्यः- स्याद्वादिनामुत्तरपक्ष: ] अत्र प्रतिविधीयते - यदुक्तम् “यः अतस्मिंस्तदिति प्रत्ययः स भ्रान्तः यथा मरीचिकायां जलप्रत्ययः तया चाऽयं मिनेष्वर्थेष्वभेदाध्यवसायी शाब्दः प्रत्ययः" [१८-४] इति, तत्र भिनेवहाँ होने पर उसकी) प्राप्ति होती है तब परम्परा से वह प्रतीति इस ढंग से वस्तु के साथ संलग्न होने से ही अविसंवादिनी कही जाती है । वस्तुस्थिति ऐसी है कि पदार्थ की प्राप्ति उस के दर्शनमात्र से नहीं किन्तु उस देश-काल में उस की सत्ता होने से होती है । यदि दर्शनमात्र से पदार्थ प्राप्त होता तब तो वातायन में सूर्यप्रकाश में जो वृत्ताकार केश के गोले (=केशोन्दुक) का दर्शन होता है उन की भी प्राप्ति होती, किन्तु वह नहीं होती है। प्रश्न :-आपने परम्परा दिखाई कि दर्शन के बाद अर्थप्राप्ति के लिये प्रवृत्ति होती है यहाँ प्रश्न है कि उस वस्तु का प्रतिभास हुये विना उस की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? ___उत्तर :- हमारा भी ऐसा ही प्रश्न है कि वस्तु के प्रतिभासमात्र से प्रवृत्ति कैसे हो जायेगी ? वस्तु का प्रतिभास मानने पर भी जिस को उस की चाह नहीं वह उसकी प्राप्ति के लिये कहाँ प्रवृत्ति करता है ? और जब चाह होती है तब तो वास्तव में उस पदार्थ का दर्शन न होने पर भी उस पदार्थ की भ्रान्ति के होने पर प्रवृत्ति हो जाती है । हाँ, वहाँ विसंवाद होने से पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि भ्रान्ति परम्परा से पदार्थ के साथ संलग्न ही होती है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रवृत्ति तो पदार्थ का प्रतिभास न होने पर भी हो सकती है । यदि ऐसा कहें कि 'विकल्प (चाहे शब्दजन्य हो या लिंगजन्य,) तो सिर्फ आत्मस्वरूपनिष्ठ यानी स्वमात्रसंवेदी होता है, परम्परा से भी उस का वस्तु के साथ कोई लगाव सिद्ध नहीं है' तो उसका भी सार यही आयेगा कि परमार्थ से तत्त्व यही है कि विकल्पमात्र स्वसंवेदी होते हैं, परसंवेदी यानी पदार्थस्पर्शी नहीं होते- इस अभिप्राय का स्वीकार करें तो भी मूलग्रन्थकार ने दूसरी कारिका में जो निवेदन किया है कि 'शास्त्र के परमार्थ के विस्तार को प्रकाशित करने वाले विद्वानों की... इत्यादि'- यह कैसे सच्चा कहा जाय जब कि शब्दात्मक शास्त्र का पारमार्थिक सम्बन्धधारी कुछ प्रतिपाद्य ही घटता नहीं है ? ★ शब्दार्थ मीमांसा-पूर्वपक्ष समाप्त ★ ★ स्याद्वादी का उत्तरपक्ष- सामान्यविशेषात्मक शब्दार्थ★ अपोहवादी ने अन्यापोह ही शब्दार्थ होने के अपने मत का सविस्तर समर्थन किया, विधिरूप शब्दार्थ का खंडन किया, स्वलक्षण, जाति समवाय आदि में संकेत का असम्भव दिखाया, बुद्धिआकार में संकेत का असम्भव दिखाते हुये अस्त्यर्थादि को शब्दार्थ मानने वाले सात पक्षों का भी निरसन किया, और भी कई मतों का खंडन करते हुये प्रज्ञाकर मत का भी निरूपण किया- इस प्रकार विस्तार से पूर्वपक्षीने अन्यापोह शब्दार्थ होने का समर्थन किया है और विध्यर्थ का खंडन किया है। विध्यर्थ के खंडन के लिये कहा गया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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