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________________ १४८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् इष्यते । लौकिकानां हि शब्दश्रवणात् प्रतीतिः, प्रवृत्तिः, प्राप्तिश्च बहिरर्थे दृश्यते । 'यदि लोकाभिप्रायोऽनुवर्त्यते बहिरर्थस्तर्हि शब्दार्थोऽस्तु तदभिमानात्, नान्यापोहः तदभावात्' - अत्रोच्यते-बहिरर्थ एवान्यापोहः, तथा चाह- “य एव व्यावृत्तः सैव व्यावृत्तिः " [ ]। नन्वेवं सति स्वलक्षणं शब्दार्थः स्यात्, तदेव विजातीयव्यावृत्तेन रूपेण शब्दभूमिरिष्यतेसजातीयव्यावृत्तस्य रूपस्य शाब्दे प्रतिभासाऽभावात्-यदि, तर्हि विजातीयव्यावृत्तं शब्दैर्विकल्पैचोल्लिख्यते तथा सति तदव्यतिरेकात् सजातीयव्यावृत्तमपि रूपमधिगतं भवेत् । न, विकल्पानामविद्यास्वभावत्वाद् नहि ते स्वलक्षणसंस्पर्शभाजः । यतस्तै(?) सर्वाकारप्रतीतिदोषाः । केवलमभिमानमात्रं बहिराध्यवसायः तदभिप्रायेण वाच्यवाचकभावः शब्दार्थयोरित्यन्यापोहः शब्दभूमिरिष्टः ।। परमार्थतस्तु शब्दलिंगाभ्यां बहिरर्थसंस्पर्शव्यतीतः प्रत्ययः केवलं क्रियते इति तत्संस्पर्शाभावेऽपि च पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धादविसंवादः । तथाहि - पदार्थस्यास्तित्वात् प्राप्तिः न दर्शनात, केशोन्दुकादेर्दर्शनेऽपि प्राप्त्यभावात् । अथ प्रतिभासमन्तरेण कथं प्रवृत्तिः ? ननु प्रतिभासेऽपि कथं कर के यह कहा है कि अन्यापोह वाच्य है । लोगों में यह देखा जाता है कि शब्द श्रवण से कुछ ज्ञानोत्पत्ति होती है, उस ज्ञान से अभिमत बाह्य वस्तुप्राप्ति के लिये चेष्टा होती है और चेष्टा से बाह्यार्थ की प्राप्ति होती है ऐसा सीलसीला देख कर हमने अन्यापोह को शब्दवाच्य कहा है। प्रश्न :- जब आप लोकाभिप्राय का अनुसरण कर रहे हैं तब ऐसा क्यों नहीं मानते कि शब्द सुन कर श्रोता को बाह्यार्थ की प्रतीति का अभिमान होता है, न कि अन्यापोह का, इसलिये बाह्यार्थ ही शब्दवाच्य है, न कि अपोह ? उत्तर :- आप जिस को बाह्यार्थ कहते हैं वास्तव में वह अन्यापोहरूप ही है। कहा है कि 'जो व्यावृत्त है वही व्यावृत्तिरूप है' । शब्दार्थवादी :- अरे ! ऐसे तो आपने व्यावृत्त और व्यावृत्ति को एक दिखाकर स्वलक्षण को ही शब्दार्थ कह दिया । अब यदि आप कहें कि 'शाब्दबोध में सजातीय व्यावृत्ति का प्रतिभास नहीं होता, इसलिये विजातीयव्यावृत्त अर्थ ही शब्द का क्षेत्र मानते हैं तो उस का मतलब यह होगा कि शब्दों से और विकल्पों से विजातीयव्यावृत्त अर्थ का उल्लेख होता है, और इस स्थिति में सजातीयव्यावृत्त अर्थ का भी भान मानना होगा क्योंकि वह विजातीय व्यावृत्त अर्थ से अतिरिक्त नहीं है, एक ही है । अपोहवादी :-नहीं, विकल्पमात्र अविद्यामूलक (=वासनामूलक) होते हैं इसलिये स्वलक्षण तो उन से अछूत ही रहता है । विकल्पों को स्वलक्षणस्पर्शी मानने पर बहुत दोष होते हैं । [यहाँ व्याख्या में 'यतस्तै सर्वाकारप्रतीतिदोषाः' - यह पंक्ति अशुद्धप्राय: होने से उसका विवरण हमने नहीं किया है। स्वलक्षण शब्दों से अछूत होने पर भी 'शब्द बाह्यार्थाध्यवसायी है ऐसा अभिमान लोगों को होता है इतने मात्र अभिप्राय को मनोगत करके शब्द और अन्यापोह का वाच्यवाचकभाव होने का कहा है- इस ढंग से अन्यापोह शब्दक्षेत्र माना गया है। ___ वास्तविक हकीकत यह है कि शब्द या लिंग से बाह्यार्थस्पर्शशून्य ही प्रतीति पैदा होती है, फिर भी कभी कभी वह अविसंवादिनी होती है उसका कारण यह है कि उस प्रतीति से चेष्टा और चेष्टा से (वस्तु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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