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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ तिपादयतीत्युच्यते, तदसत्, यतस्तदाप्यसौ चक्षुरादिभिरेव विशदेनाकारेणोद्भास्यते न शब्देन, तस्य तत्र सामर्थ्याऽदर्शनात् दर्शनाकांक्षणाच्च । यदि तु शब्देनैव सोऽर्थः स्वरूपेणैव प्रतिपायते तदाऽस्य सर्वथा प्रतिपनत्वात् किमर्थ प्रवृत्तिः ? नहि प्रतिपन्न एव तावन्मात्रप्रयोजना वृत्तिर्युक्ता, वृत्तेरविरामप्रसंगात् । अथ किंचिदप्रतिपनं रूपं तदर्थ प्रवर्त्तनम् । ननु यदप्रतिपनं व्यक्तिरूपं प्रवृत्तिविषयः तत् तर्हि न शब्दार्थः, तदेव च पारमार्थिकम् ततोऽर्थक्रियादर्शनात्, नाऽव्यक्तम् सर्वार्थक्रियाविरहात् । अथ कालान्तरे स्फुटेतरेणाकारेण व्यक्तीरुद्योतयन्ति शब्दाः । नन्वसावाकारस्तदा सम्बन्धव्युत्पत्तिकाले कालान्तरे वा नेन्द्रियगोचरस्तत् कथं तत्र शब्दाः प्रवर्त्तमानाः नयनादिगोचरेऽर्थे वृत्ता भवन्ति ! तनाध्यक्षतः सम्बन्धवे. दनम् । हैं, इन्द्रियप्रवृत्ति जैसे स्पष्टाकार से अर्थप्रकाश करती है वैसे शब्दप्रवृत्ति भी अन्यकाल में स्पष्टाकार से अर्थप्रकाश करती है या अस्पष्टाकार से ? यदि कहें कि स्पष्टाकार से अर्थप्रकाश करती है तो यह गलत बात है चूंकि अन्यकाल में भी स्पष्टाकार से अर्थप्रकाशन करने का सामर्थ्य चक्षु आदि इन्द्रियों में ही होता है, शब्द में नहीं होता है, क्योंकि शब्द से नीलादि अर्थप्रकाश होने पर भी वह नीलादि घेरा नील है या फीका-इत्यादि देखने की आकांक्षा उदित होती है, इन्द्रियप्रवृत्ति के बाद ऐसी आकांक्षा बचती नहीं है।
यदि कहें कि - शब्द तो सिर्फ (सामान्य)स्वरूप से ही अर्थप्रकाश करता है- तो यहाँ भी प्रभ ऊठेगा कि अर्थ का (सामान्य)स्वरूप तो प्रत्यक्ष से विशेषस्वरूपग्रहण के साथ ही पूरा गृहीत हो चुका रहता है, अब उसके ग्रहण के लिये शब्दप्रवृत्ति की क्या जरूर ? जिस स्वरूप का ग्रहण हो चुका है उतने मात्र स्वरूप का पुनर्ग्रहण यह कोई ऐसा प्रयोजन नहीं है जिस के लिये शब्द की प्रवृत्ति युक्त कही जाय । फिर भी वहाँ शब्द की प्रवृत्ति मानेंगे तो बार बार वैसी अन्तहीन शब्दप्रवृत्ति मानने का अतिप्रसंग आ पडेगा । यदि कहें कि-'कुछ ऐसा भी रूप है जो पूर्वप्रतिपन्न नहीं हुआ है, ऐसे अप्रतिपन्नरूप के ग्रहण के लिये शब्दप्रवृत्ति सार्थक होगी'. तो यहाँ समझ लीजिये कि अप्रतिपत्ररूप के ग्रहण के लिये शब्दप्रवृत्ति सार्थक होने पर भी वह अप्रतिपत्ररूप शब्द का प्रतिपाद्य अर्थ नहीं होगा, क्योंकि स्वरूप अपरिवर्त्य होता है अत: जो अप्रतिपत्र स्वरूप है वह शब्द से भी प्रतिपत्रस्वरूप कैसे होगा ? और दूसरी बात यह है कि वह अप्रतिपत्ररूप शब्दप्रवृत्ति आत्मक अर्थक्रिया का जनक होने से वही पारमार्थिक माना जायेगा आप जो शब्दवाच्य अव्यक्ताकार को भी पारमार्थिक मानना चाहते हैं वह किसी भी अर्थक्रिया का जनक न होने से पारमार्थिक नहीं माना जायेगा । [फलत: हम जो कहते हैं कि शब्द का पारमार्थिक वाच्य कोई नहीं है यह अनायास सिद्ध हो जायेगा।]
यदि कहें कि - 'यह उस का वाचक है' इस का मतलब यह है कि शब्द कालान्तर में अस्पष्टाकार से व्यक्तियों को प्रकाशित करता है' - तो यहाँ इस बात पर ध्यान दीजिये कि जब 'यह उसका वाचक है' इस ढंग से सम्बन्धग्रहण किया जा रहा है उसी काल में या अन्य काल में वह अस्पष्टाकार इन्द्रियों से तो गृहीत ही नहीं हुआ है, इन्द्रियअगृहित अर्थ में ही वहाँ शब्दप्रवृत्ति जब हो रही है तब आपने कैसे कहा था कि इन्द्रियजन्यज्ञान में जो व्यक्ति आरूढ है उसी में 'यह उस का वाचक है' ऐसी शब्दप्रवृत्ति होती है ? जिस अस्पष्टाकार के लिये शब्दप्रवृत्ति हो रही है वह तो इन्द्रियअगोचर है । निष्कर्ष, 'प्रत्यक्ष से वाच्य-वाचकभावात्मक सम्बन्ध का ग्रहण' युक्ति से घटता नहीं है ।
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