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________________ १४४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रूपं तासां भिन्नमेव लिङ्गादिगोचरः, तस्याभेदे पूर्वोक्तदोषात्, तथा च सम्बन्धाननुभव एव स्यात् ।। किंच व्यक्तौ सम्बन्धवेदनं प्रत्यक्षेण अनुमानेन वा भवेत् ? न तावत् प्रत्यक्षेण, तस्य पु. रःस्थितरूपमात्रप्रतिभासनात् शब्दस्य वचनयोर्वाच्यवाचकसम्बन्धस्तेन गृह्यते । अथेन्द्रियज्ञानारूढे एव रूपे सम्बन्धव्युत्पत्तिदृश्यते - 'इदमेतच्छब्दवाच्यम्' 'अस्य वेदमभिधानम्' इति । अत्र विचारः - 'अस्येदं वाचकम्' इति कोर्थः ? किं प्रतिपादकम्, यदि वा कार्यम्, कारणं वेति ? तत्र यदि प्रतिपादकम्, तत् किमधुनैव, यद्वाऽन्यदा ? तत्र यद्यधुनोच्यते शब्दरूपमर्थस्य प्रतिपादकं विशदेनाकारेणेति, तदयुक्तम्, अक्षव्यापारेणाधुना विशदाकारेण नीलादेरवभासनात्, ततश्चाक्षव्यापार एवाधुना प्रकाशकोऽस्तु न शब्दव्यापारः, तस्य तत्र सामर्थ्यानधिगतेः । अथान्यदा लोचनपरिस्पन्दाभावे शब्दोऽर्थानुद्भासयति तदा किं तेनैवाकारणासौ तानानवभासयति, यद्वा आकारान्तरेणेति विकल्पद्वयम् । यदि विशदेनाकारेण प्रके विना ही शब्द से व्यक्तिरूप की प्रतीति माननी होगी । यदि पूर्वव्यक्ति और वर्तमान व्यक्तिरूप को एक मानेंगे तब तो पहले दोष कहा ही है कि प्रत्यक्षविषय पूर्वव्यक्ति और शब्दविषय वर्त्तमानव्यक्ति में व्यक्ताकार और अव्यक्ताकार दोनों को मानने जायेंगे तो उन दोनों रूपों का एक व्यक्ति में ग्रहण शब्दजन्यबोध से होगा या इन्द्रियजन्य बोध से होगा... इत्यादि । ★ प्रत्यक्ष से व्यक्ति में सम्बन्धवेदन अशक्य ★ जब आप सम्बन्ध ज्ञान के द्वारा ही अर्थप्रतीति मानते हैं तब सम्बन्धोपलब्धि के बारे में यह भी सोच लेना चाहिये कि व्यक्ति में शब्द या लिंग के सम्बन्ध का भान प्रत्यक्ष से होगा या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष तो अपने सन्मुख अवस्थित वस्तु का ही प्रकाशन करता है, अत: अर्थ और वचन के बीच वाच्यवाचकभावरूप सम्बन्ध का भान प्रत्यक्ष से सम्भव नहीं । [सम्बन्धग्रहण के लिये सम्बन्धिद्वय का ग्रहण अपेक्षित होता है, जिस इन्द्रिय से अर्थ का प्रत्यक्ष होता है उसी इन्द्रिय से शब्द का प्रत्यक्ष समान काल में न होने से सम्बन्ध का ग्रहण कैसे माना जाय ?] यदि कहें - "इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान में जिस व्यक्तिरूप की उपलब्धि होती है उसी व्यक्ति में - 'यह इस शब्द का वाच्य है' अथवा 'यह इस का वाचक है' इस प्रकार वाच्य-वाचक भावात्मक सम्बन्ध का ग्रहण देखा जाता है तब वह प्रत्यक्षगम्य क्यों नहीं मान सकते ?" - ऐसे कथन के बारे में भी यह विचार करना चाहिये कि 'यह इस का वाचक है' इस प्रतिपादन में 'वाचक' का मतलब प्रतिपादक है या कार्य अथवा कारण है ? यह इस का वाचक यानी 'प्रतिपादक' है ऐसा अगर आप का अभिप्राय हो तो वहाँ भी दो विकल्प प्रभ है- वाचक यानी प्रतिपादक किस काल में है, आधुनिक प्रत्यक्ष काल में या अन्य काल में ? यहाँ ऐसा कहना कि- अभी (प्रत्यक्ष काल में) शब्द अर्थ का स्पष्टाकार से प्रतिपादक है- यह गलत है क्योंकि जब इन्द्रियप्रवृत्ति ही वहाँ स्पष्टाकार से नीलादि अर्थ का प्रतिपादन (=प्रकाशन) कर रही है तब वहाँ उस आधुनिक काल में इन्द्रियप्रवृत्ति को ही अर्थप्रकाशक मानना होगा, शब्दप्रवृत्ति को नहीं, क्योंकि इन्द्रियप्रवृत्ति के आगे शब्दप्रवृत्ति दुर्बल होने से वहाँ अर्थप्रकाशन का सामर्थ्य शब्दप्रवृत्ति में उपलब्ध नहीं होगा । यदि दूसरा विकल्प मान कर कहेंगे कि - 'शब्द अन्यकाल में यानी जब चक्षुप्रवृत्ति नहीं है तब अर्थप्रकाशक है- तो यहाँ भी दो विकल्पप्रश्न • यहाँ भिन्न भिन्न हस्तादर्श में भिन्न भिन्न अशुद्ध पाठ है किंतु शुद्ध पाठ 'न ह्यर्थस्य वचनयो'... ऐसा होना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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