SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयः खण्डः - का० - २ ङ्गात् । तत्राक्ष - शब्दयोरेको विषयः । किंच, यदि व्यक्तिः शब्दलिंगयोरर्थः तथा सति सम्बन्धवेदनं विनैव ताभ्यामर्थप्रतीतिर्भवेत् । न हि तत्र तत् तयोः सम्भवति । व्यक्तिर्हि नियतदेशकालदशापरिगता न देशान्तरादिकमनुवर्त्तते नियतदेशादिरूपाया एव तस्याः प्रतीतेः तथा चैकत्रैकदा सम्बन्धानुभवेऽन्यस्यार्थस्य कथं प्रतीतिः ? अथ व्यक्तीनामेकजात्युपलक्षिते रूपे सम्बन्धादनन्तरा भविष्यति, तदपि न युक्तम्, यतो जात्युपलक्षितमपि १४३ होना चाहिये, उस के बदले वे नीलाभिन्नतया क्यों दिखाई देते हैं ? जिस रूप से जो चीज दिखाई दे वह रूप उसी चीज का माना जाता है, अतः व्यक्त-अव्यक्त आकार रूप से नीलादि व्यक्ति का अवभास होने से दोनों नीलादि के ही आकार मानना चाहिये । जब जब नील का प्रतिभास होता है तब तब या तो व्यक्तरूप का भास होता है या तो अव्यक्तरूप का; किन्तु व्यक्त-अव्यक्त आकार को छोड कर अन्य कोई नील भासता नहीं है; व्यक्त-अव्यक्त आकार से अतिरिक्त नील का प्रतिभास न होने से यही व्यक्त होता है कि व्यक्त और अव्यक्त रूप के अलावा ओर कोई नील है नहीं । अब मुख्य बात यह है कि जब व्यक्ताकार या अव्यक्ताकार नील के ही है, ज्ञान के नहीं, तब शब्दजन्य प्रतीति में भासमान अव्यक्तमात्र आकारवाले नील का प्रत्यक्ष में भासमान व्यक्ताकारवाले नील से भेद है, यानी वे दोनों नील भिन्न हैं । दोनों का प्रतिभास भिन्न होने पर भी आप अगर उस में ऐक्य मानने पर तुले हैं तब तो घट और पट को भी एक मानने का अतिप्रसंग आयेगा, भले ही उन दोनों का प्रतिभास भिन्न हो । निष्कर्ष, शब्दजन्यबोध और प्रत्यक्ष का विषय भिन्न भिन्न है, एक नहीं है, अतः शब्द और इन्द्रिय का भी क्षेत्र भिन्न भिन्न है, एक नहीं है । ★ व्यक्तिपक्ष में सम्बन्धवेदन की अनुपपत्ति ★ यह भी विचारणीय है कि आप जाति पक्ष को छोड कर व्यक्ति को ही शब्द और लिंग का प्रतिपाद्य अर्थ मानते हैं तब वहाँ शब्द और लिंग से व्यक्तिरूप अर्थ का भान होगा तो भी सम्बन्ध के ज्ञान के विना ही हो जाना चाहिये । कारण, शब्द और व्यक्ति के बीच, या लिंग और लिंगी (व्यक्ति) के बीच जो संकेत या अविनाभावादिरूप सम्बन्ध आप को अभिप्रेत है, उसका वेदन सम्भवित नहीं है । देखिये व्यक्ति तो किसी नियत देश-काल और अवस्था में रही हुयी ही प्रतीत होती है इस लिये व्यक्तिविशेष का अवस्थान नियत देशकाल और अवस्था में ही मानना होगा, अन्य देश-काल में उसका होना युक्तियुक्त नहीं है । इस स्थिति में आप AIT अभिमत सम्बन्ध किसी एक काल में किसी एक स्थान में किसी एक व्यक्ति में जब अनुभूत होगा तब अन्य काल में और अन्य स्थान में किसी अन्य व्यक्ति में तो यह हो नहीं सकता, तब उस अन्य व्यक्ति की प्रतीति अगर सम्बन्धाधीन मानेंगे तो सम्बन्ध अनुभव के विना उस की प्रतीति कैसे होगी ? Jain Educationa International यदि ऐसा कहें कि - 'पूर्वकाल में जिस जाति से उपलक्षित व्यक्तिरूप में सम्बन्ध ग्रहण किया था, वर्त्तमान व्यक्ति उसी जाति से उपलक्षित होने से उस में समान जाति द्वारा सम्बन्धग्रहण शक्य होने से पूर्व व्यक्ति का कालान्तर में या देशान्तर में गमन न होने पर भी वर्त्तमान व्यक्तियों में भी सम्बन्ध का अविनाभाव रहता है, इसलिये उन की प्रतीति में भी सम्बन्धग्रहण आवश्यक बन जायेगा ।' तो यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि जाति के एक होने पर भी तदुपलक्षित व्यक्तिरूप तो भिन्न काल में भिन्न भिन्न ही है जिस को आप लिंग या शब्द का विषय मानना चाहते हैं । अतः पूर्व व्यक्ति में अनुभूत सम्बन्ध वर्त्तमान व्यक्ति में न होने से सम्बन्धज्ञान For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy