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________________ १४२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् स्याधिगमे कयं प्रतिपत्तिभेदः ? अन्यच्च प्रत्यक्षेऽपि साक्षादिन्द्रियसम्बन्धोऽस्तीति न स्वरूपेण ज्ञातुं शक्योऽसौ तस्याऽतीन्द्रियत्वात्, किन्तु स्वरूपप्रतिभासात् कार्या(न्) । तच्च वस्तुस्वरूपं यद्यनुमानेऽपि भाति तथा सति तत एव इन्द्रियसम्बन्धः समुनीयताम् । अथ तत्र परिस्फुटप्रतिभासाभावान्नासावनुमीयते, ननु तदभावस्तवाक्षसंगतिविरहात् प्रतिपाद्यते तदभावश्च स्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽयमितरेतराश्रयदोषः । अथ व्यक्तिरूपमेकमेव नीलादित्व(?दिक)मुभयत्र प्रतीयते व्यक्ताव्यक्ताकारौ तु ज्ञानस्यात्मानौ । तत्रोच्यते यदि तौ ज्ञानस्याकारी, कथं नीलप्रभृतिरूपतया प्रतिभातः ? तद्रूपतया च प्रतिभासनाबीलायाकारावेतौ, नहि व्यक्तरूपतामव्यक्तरूपतां च मुक्त्वा नीलादिकमपरमाभाति, तदनवभासनात् तस्याभाव एव । व्यक्ताव्यक्तैकात्मनश्च नीलस्य व्यक्ताकारवद् भेदः, नहि प्रतिभासभेदेप्येकता अतिप्रसका प्रकाशन होता है जिस स्वरूप का प्रकाशन इन्द्रियों के द्वारा होता है, तब ऐसी स्थिति में दोनों प्रतीतियों में समान मात्रा में ही व्यक्ति के स्वरूप का प्रकाशन हुआ, न एक में कुछ कम, न दूसरे में अधिक, तब उनमें स्वरूपभेद क्या रहा ? तात्पर्य, कारणभेदमूलक भेद रहने पर भी अक्षजन्य और शब्दलिंगजन्य प्रतीतियों में कुछ भी फर्क नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष के कारणरूप में इन्द्रियसंनिकर्ष की सिद्धि प्रत्यक्ष से तो नहीं होती क्योंकि इन्द्रियसंनिकर्ष स्वयं अतीन्द्रिय होता है इसलिये इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष का वह विषय न होने से तद्गत प्रत्यक्षकारणता का ज्ञान भी प्रत्यक्ष नहीं होता है, किन्तु स्पष्ट स्वरूपावभासरूप कार्यात्मक लिंग से उत्पन्न अनुमिति से यह उपलम्भ होता है कि यह विज्ञान इन्द्रियसंनिकर्षजन्य है (क्योंकि स्पष्टावभासी है) । अब आप कहते हैं कि शब्दलिंगजन्य प्रतीति में भी प्रत्यक्षतुल्य ही स्वरूपप्रकाशन होता है- तब तो वहाँ भी स्पष्टस्वरूप प्रकाशन रूप कार्यात्मक लिंग से इन्द्रियसंनिकर्ष का अनुमान होगा । फलतः, आपने जो कारणभेदमूलक भेद दिखाया है वह भी नहीं रहेगा क्योंकि अब तो दोनों प्रतीतियां इन्द्रियसंनिकर्षजन्य प्रसक्त है । यदि आप कहेंगे कि- शब्दलिंगजन्यप्रतीति में स्पष्ट स्वरूपावभास न होने से वहाँ इन्द्रियसंनिकर्ष का अनुमान नहीं हो सकेगा- तो इस बात पर अन्योन्याश्रय दोष लगेगा, देखिये- (पहले तो आपने शब्दलिंगजन्यप्रतीति में भी स्पष्ट स्वरूपबोध होने का मान लिया है फिर भी अब कहते हैं) स्पष्ट स्वरूपावभास नहीं है तो क्यों नहीं है ? इन्द्रियसंनिकर्ष नहीं है इसलिये नहीं है। अब इन्द्रियसंनिकर्ष नहीं है यह कैसे ज्ञात होगा ? स्पष्टस्वरूपावभास नहीं है इस से । तो स्पष्ट ही यहाँ इतरेतराश्रय दोष आ पडता है । ★ शाब्द और अक्षजन्य प्रतीति में भिन्नविषयता* अब यदि आप कहें - "दोनों प्रतीतियों में एक ही व्यक्तिरूप नीलादि का भान होता है, पहले जो कहा था कि प्रत्यक्ष में व्यक्ताकाररूप से और शब्दलिंगजन्य प्रतीति में अव्यक्तरूप से व्यक्ति का अवभास होता है- उस का यह अभिप्राय नहीं है कि एक ही व्यक्ति के दो आकार भासित होते हैं, किन्तु अभिप्राय यह है कि एक ही व्यक्ति का प्रत्यक्षानुभव व्यक्ताकार होता है और परोक्षानुभव अव्यक्ताकार होता है। तात्पर्य, व्यक्ताकार और अव्यक्ताकार व्यक्ति में नहीं किन्तु ज्ञान के भीतर में रहने वाले हैं यानी ज्ञानात्मरूप ही है" - इस के ऊपर अपोहवादी पूछता है कि वे आकार जब ज्ञानात्मरूप हैं तो फिर उन का अनुभव ज्ञानाभिन्नतया - 'तस्याभाव एव । व्यक्ताव्यक्तकात्मनश्च' इस पाठ के स्थान में 'तस्याभाव एव व्यक्तः । अव्यक्तकात्मनश्च' ऐसा पाठ शुद्ध होना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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