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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०.२ १४१ न हि परिस्फुटप्रतिभासवेलायामविशदरूपाकारो व्यक्तिमारूढः प्रतिभाति, तत् कथं व्यक्तेरसावात्मा ? अथ 'श्रुतं पश्यामि' इति व्यवसायाद् दृश्य-श्रुतयोरेकता । ननु किं दृश्यरूपतया श्रुतमवगम्यते, श्रुतरूपतया वा दृश्यम् ? तत्राये पक्षे दृश्यरूपावभास एव, न श्रुतगतिर्भवेत् । द्वितीयेऽपि पक्षे श्रुतरूपावगतिरेव व्यक्तेः, न दृश्यरूपसम्भवः । तस्मात् प्रतिभासरहितमभिमानमात्रमिन्द्रियशन्दार्थयोरध्यवसानम् न तत्त्वम्। अन्यथा दर्शनवत् शान्दमपि स्फुटप्रतिभासं स्यात् । अथ तत्रेन्द्रियसम्बन्धाभावाद् व्यक्तिस्वरूपावभासेऽपि प्रतिपतिविशेषः स्यात् । नन्वक्षैरपि स्वरूपमुद्भा - सनीयम् तत्र यदि शब्दलिंगाभ्यामपि तदेव दयते तथा सति तस्यैवान्यूनातिरिक्तस्य स्वरूपके व्यक्तरूप का और शब्दजन्यज्ञान में उसके अव्यक्तरूप का अनुभव होता है । अर्थात् दोनों ज्ञान में भिन्न भिन्न आकार से (समान) व्यक्ति का अनुभव हो सकता है ।'' - इस के सामने अपोहवादी कहता है- व्यक्त और अव्यक्त ये दोनों एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं यह कैसे जान पायेंगे ? शब्दजन्य ज्ञान से तो नहीं जान सकते, क्योंकि वहाँ सष्ट (=व्यक्त)रूप का अनुभव नहीं होता है, अस्पष्ट रूप का ही वहाँ अनुभव होता है। अर्थात् दोनों रूप का वहाँ एक व्यक्ति में अनुभव नहीं होता । इन्द्रियजन्य ज्ञान से भी वह नहीं जान सकते, क्योंकि वहाँ स्पष्टरूप का ही अवभास होता है, यहाँ स्पष्ट रूप के अनुभवकाल में व्यक्ति के भीतर रहे हुए अस्पष्टाकार का संवेदन नहीं होता है । तब कैसे यह जाना जाय कि इन्द्रियजन्यज्ञान में भासमान व्यक्ति अस्पष्टरूप भी धारण करने वाली है ? अगर कहें - 'मैं सुनी हुई व्यक्ति को देखता हूँ' इस प्रकार का निश्चयात्मक अनुभव होता है । यहाँ पूर्वश्रुत व्यक्ति और वर्तमानकाल में दृश्यमान व्यक्ति में ऐक्य का अनुभव होता है । एक ही व्यक्ति का पूर्वश्रुत रूप से यहाँ अस्पष्टाकार का और दृश्यमानरूप से स्पष्टाकार का- दोनों का बोध अनुभवसिद्ध है।' - इस के सामने अपोहवादी दो विकल्पप्रश्न खडा करता है कि यहाँ पूर्वश्रुत का दृश्यरूप से भान होता है या दृश्य का पूर्वश्रुत रूप से भान होता है ? प्रथम विकल्प में, दृश्यरूप से भान होता है तो वह दृश्यरूप का ही भान हुआ, श्रुत का नहीं हुआ। दूसरे विकल्प में, श्रुतरूप से जो भान होता है वह श्रुत का ही हुआ दृश्य का नहीं हुआ। तात्पर्य यह है कि 'मैं सुनी हुई व्यक्ति को देखता हूँ' यह प्रतिपादन अर्थशून्य वचनमात्र है, वास्तव में वहाँ वैसा कोई वास्तव अनुभव है नहीं, किन्तु वासना के कारण वैसा इन्द्रियगोचर स्पष्टरूप और शब्दगोचर अस्पष्टरूप का अध्यवसाय करता हूँ ऐसा मिथ्याभिमान हो जाता है कि 'मैं पूर्वश्रुत को देखता हूँ । वास्तव में वहाँ वैसा अनुभव होता नहीं है । ऐसा अगर नहीं मानेंगे तो, 'पूर्वदृष्ट को सुन रहा है। इस प्रकार के अध्यवसाय से शाब्दबोध में भी स्पष्टाकार बोध की आपत्ति आ पडेगी । तब प्रत्यक्ष और शाब्दबोध में कोई भेद नहीं बच पायेगा। ★ शान्द और प्रत्यक्ष प्रतीति में प्रतिपत्तिभेद कैसे ? ★ यदि ऐसा कहें - “प्रत्यक्ष के प्रति अर्थ के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष कारण होता है जो शब्द और लिंग से उत्पन्न होने वाले ज्ञान में कारण नहीं है। इस प्रकार दोनों प्रतीतियों में व्यक्ति के स्वरूप का अवबोध होने पर भी, एक इन्द्रियसंनिकर्षजन्य है और दूसरी इन्द्रियसंनिकर्षजन्य नहीं है- यह कारणभेद स्पष्ट होने से प्रतिपत्तिविशेष यानी कार्यभेद जरूर होगा । अर्थात् दोनों प्रतीति में कारणभेदमूलक भेद निर्बाध रहेगा।"- इस के सामने अपोहवादी कहता है कि कारणभेद चाहे हो या न हो, जब शब्द और लिंग से व्यक्ति के उसी स्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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