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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यक्तिरेव गृहीता न जातिः, द्वितीयेपि जातिरूपाधिगतिरेव न व्यक्तिरिति न सर्वथा धर्म - धर्मिभावः । तन जातिः शब्द- लिंगयोर्विषयः । १४० अथाकृ ( ? अथ जा ) तिविशिष्टा व्यक्तिस्तयोरर्थः । तदप्यसत् तस्याः प्रतिभासाभावात् । न हि शब्दलिंगप्रसवे विज्ञाने व्यक्ति (क्त) रूपतया प्रतिभाति, तदभावेऽपि तस्योदयात् अव्यक्ताकारानुभवाच्च । अथापि व्यक्तेरेवाकारद्वयमेतत् - व्यक्तरूपमव्यक्तरूपं चेति । तत्र व्यक्तरूपमिन्द्रियज्ञानभूमिः अव्यक्तं च शब्दपथः । ननु रूपद्वयं व्यक्तेः केन गृह्यते ? न तावदभिधानजेन ज्ञानेन तत्र स्पष्टरूपानवभासनात्, अस्पष्टरूपं हि तदनुभूयते । नापीन्द्रियज्ञानेन व्यक्तेराकारद्वयं प्रतीयते, तत्र व्यक्ताकारस्यैव प्रतिभासनात् । हैं तब भी अगर उन दोनों में भेद का प्रतिभास होता है तो वहाँ भी एक का धर्मरूप में और दूसरे का धर्मीरूप में प्रतिभास नहीं होता । उदा० घट और वस्त्र एक दूसरे से भिन्न रूप में जब प्रत्यक्ष होते हैं तब उन में धर्म- धर्मभाव प्रतीत नहीं होता । फिर भी आप वहाँ धर्म- धर्मिभाव मान लेंगे तब तो सारे जगत् के प्रत्येक भावों में परस्पर धर्म-धर्मीभाव मानना पडेगा । जातिवादी :- प्रत्यक्ष बोध में जाति और व्यक्ति की तद्रूपता ( = एकरूपता) का ही अवभास होता है, भेदरूप से अवबोध नहीं होता, इस लिये उन में धर्म- धर्मिभाव की गैरव्यवस्था का दोष नहीं रहेगा । अपोहवादी :- ' तद्रूपता का अवभास' इस का क्या मतलब है- जाति का (तद् यानी व्यक्ति, अतः ) व्यक्ति रूप से अवभास ? या व्यक्ति का ( तद् यानी जाति, अतः ) जातिरूप से अवभास ? प्रथम विकल्प में, व्यक्तिरूप से अवभास का यही मतलब है की व्यक्ति का अवभास होता है, जाति का नहीं । तब धर्म - धर्मिभाव कैसे हो सकेगा ? दूसरे विकल्प में, जातिरूप से अवभास का मतलब यही निकलेगा कि जाति का भान होता है व्यक्ति का नहीं । तब भी धर्म - धर्मिभाव कैसे होगा ? दोनों पक्ष में धर्म- धर्मीभाव की व्यवस्था नितान्त अशक्य बन जाती है । उपर्युक्त सभी विमर्श का निष्कर्ष यह है कि जाति शब्द और लिंग से उत्पन्न बोध का विषय नहीं है । ★ व्यक्ताकार प्रतीति शब्दबुद्धि में नामंजूर ★ 'लिंग और शब्द का विषय जाति है' इस प्रथम पक्ष में विस्तार से दोष दिखाने पर यदि कहा जाय कि आकृतिविशिष्ट व्यक्ति को शब्द और लिंग का विषय मानेंगे तो यह दूसरा पक्ष भी गलत है। [यहाँ यद्यपि 'आकृतिविशिष्टा' ऐसा ही मूलपाठ उपलब्ध है, किंतु इस प्रज्ञाकर मत के उपन्यास के प्रारम्भ में 'जातिर्वा तयोर्विषयः व्यक्तिर्वा तद्विशिष्टा ?' ऐसा पाठ आ चुका हैं- उस से यह अनुमान है कि यहाँ भी 'अथाकृतिविशिष्टा' के स्थान में 'अथ जातिविशिष्टा' ऐसा ही पाठ होना चाहिये । या तो प्रारम्भ में 'व्यक्तिर्वा तद्विशिष्टा' के बदले में 'व्यक्तिर्वाकृतिविशिष्टा' ऐसा पाठ होना चाहिये] यह दूसरा पक्ष गलत होने का कारण यह है कि - व्यक्ति वह है जिस का व्यक्तिरूप से (या व्यक्ताकार ) अनुभव हो, शब्द और लिंग से जन्य अनुभव में व्यक्तरूप से किसी का भान नहीं होता है, तो फिर वहाँ व्यक्ति को कैसे विषय माना जाय दूसरी बात यह है कि घटपटादि पदों से घट-पट व्यक्ति के विना भी बोध उत्पन्न होता है और तीसरी बात यह है कि शब्द और लिंग से उत्पन्न बोध में अव्यक्त आकार का ही अनुभव होता है, अतः वहाँ व्यक्ति को विषय मानना गलत है । यदि कहें 'व्यक्तरूप और अव्यक्तरूप ये दोनों व्यक्ति के दो आकार हैं; इन्द्रियजन्य ज्ञानमें व्यक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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