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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१३९ ब्दैरनभिधीयमानमधिकरणं तदभिहितैर्जात्यादिभिराक्षिप्यमाणं तद्व्यवस्थाकारि' इति, तत्र च समाधिः न सामर्थ्यायातमधिकरणमेकाधिकरणतां शब्दयोः कर्तुमलम् घटपटशब्दयोरपि ताभ्यामभिहिताभ्यामेकस्य भूतलादेराधारस्याऽऽक्षेपादेकार्थताप्रसंगात् ।
तथा, जातिपक्षे धर्म-धर्मिभावोऽप्यनुपपन्न एव । यदि हि व्यक्तावाश्रिता जातिः प्रतीयेत तदा तद्धर्मः स्यात्, यदा तु व्यक्तिः सत्यपि नाभाति शब्दजे ज्ञाने तदा जातेरेव केवलायाः प्रतिभासनात् कथं जाति-जातिमतोधर्मधर्मिभावः ? न हि नीलादिः केवलं प्रतीयमानः कस्यचिद्धर्मो धर्मी वा । यदापि प्रत्यक्ष द्वयं प्रतिभाति तदापि भेदप्रतिभासे सति न धर्म-धर्मिभावः, सर्वत्र तथाभावप्रसंगात् । अथ प्रत्यक्षे ताप्यं प्रतिभाति जाति-व्यक्त्योः तेनायमदोष इति चेत् ? अत्रोच्यते - ताप्येण विज्ञानमिति किं व्यक्तिरूपतया जातेरधिगतिः, अथ जातिरूपतया व्यक्तेरिति ? तत्र यद्याद्यः पक्षः तथा सति
यदि कहें - "नीलपदवाच्य नीलत्व जाति यद्यपि उत्पलत्व जाति से भिन्न है, तथापि (नीलत्वजाति का आश्रय गुणात्मक नीलरूप है और) नीलरूप एवं उत्पलत्व जाति ये दोनों भिन्न होते हुये भी नीलवर्णवाले एक ही कमलरूप अधिकरण में रहते हैं, इस प्रकार नीलत्वजातिवाले नीलगुण और उत्पलत्व जाति के सामानाधिकरण्य के द्वारा, नीलत्व जाति वाचक नीलपद और उत्पलत्व जातिवाचक उत्पल पद का सामानाधिकरण्य घट सकता है।"- तो इस के सामने अन्यापोहवादी कहता है- आपके मतानुसार शब्दजन्य प्रतीति में नीलत्वजातिवाले नीलगुण का और उत्पलत्व जाति का भान होने पर भी उन दोनों के अधिकरण का भान तो हो नहीं सकता, क्योंकि यहाँ व्यक्ति नहीं किन्तु जाति शब्दवाच्य है यह पक्ष चल रहा है, उसमें अधिकरण व्यक्ति तो शब्द का गोचर मान्य ही नहीं है । गुण और जाति के सामानाधिकरण्य की व्यवस्था के लिये नीलपद और उत्पलपद से अधिकरण सन्निहित यानी उपस्थित होना चाहिये, किन्तु जब नीलपद और उत्पलपद से अधिकरण का स्वरूप ही भासता नहीं तो उस की उपस्थिति के द्वारा नीलपद और उत्पल पद के सामानाधिकरण्य की व्यवस्था कैसे मानी जाय ? किसी ठोस आधार के विना ही अगर ऐसी व्यवस्था मान ली जाय तब तो घट और पट पदों में भी वह प्रसक्त होने की आपत्ति खडी है। इस से बचने के लिये फिर से आप कहेंगे कि - 'शब्दों से अनुक्त अधिकरण भी शब्दाभिहित जाति आदि से उसके आधाररूप में आक्षिप्त होता है और इसमें सामानाधिकरण्य भी हो जाता है- तो इस के प्रत्युत्तर में यही समाधान कहना होगा कि सामर्थ्य से आक्षिप्त अधिकरण के द्वारा शब्दों की एकाधिकरणता का होना अशक्य है, अन्यथा घट-पट शब्द से भी भूतलरूप अधिकरण का आक्षेप कर के घट-पट शब्द का सामानाधिकरण्य प्रसक्त होगा ।
★जातिवाच्यतापक्ष में धर्म-धर्मिभाव की अनुपपत्ति★ जातिवादी के पक्ष में धर्म-धर्मीभाव भी घट नहीं सकता । कारण, जाति-व्यक्ति में धर्म-धर्मीभाव की व्यवस्था के लिये जाति व्यक्ति में आश्रित होने की प्रतीति होनी चाहिये, तभी जाति को व्यक्ति का धर्म और व्यक्ति को जाति का धर्मी कह सकते हैं, किन्तु वैसी प्रतीति ही नहीं होती । जाति को शब्दवाच्य मानेंगे तो शब्दजन्य प्रतीति में, व्यक्ति स्वयं सद्भूत होने पर भी उस का भान होगा नहीं, तब सिर्फ जाति का ही भान होगा; किन्तु एकमात्र जाति का ही ज्ञान होने पर, जाति और व्यक्ति के बीच धर्म-धर्मिभाव का एहसास कैसे होगा ? जब नीलादि एक ही वस्तु का प्रतिभास होता है तब वह किसी के धर्म या धर्मी के रूप में भासित नहीं होता, सिर्फ 'यह नील है' इतना ही भास होता है । जब दो वस्तु (घट और पट) का प्रत्यक्ष करते
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