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________________ १३८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कादाचित्के तु जातेयक्तिनिष्ठाऽधिगमे 'सर्वदा न तनिष्ठता' इत्युक्तम् । तर प्रत्यक्षेण जातेस्तनिष्ठता प्रतिपत्तुं शक्या । नाप्यनुमानेन, तत्पूर्वकत्वेन तस्य तदभावेनाऽप्रवृत्तेः । तत्र जात्यापि तदभावे व्यक्तरधिगमः कर्तुं शक्यः । किंच, यदि जातिरभिधानगोचरः तथा सति नीलवजातिरुत्पलत्वजातिश्च द्वयमपि परस्परभिनं प्रतीतमिति न सामानाधिकरण्यं भवेत्। न हि परस्परविमिनार्यप्रतीतौ तद्वयवस्था 'घटः पटः' इति दृश्यते । अथ गुण-जाती प्रतिनियतमेकाधिकरणं विभ्राते ततस्तद्वारेणैकाधिकरणता शब्दयोः । ननु गुण-जातिप्रतीतौ शब्दजायां न तदधिकरणभाभाति तस्य शन्दागोचरत्वात्, न चानुद्भासमानवपुरधिकरणं सनिहितमिति न समानाधिकरणताव्यवस्था अतिप्रसङ्गात् । पुनरपि तदेव वक्तव्यम् - 'श. अन्तःप्रविष्ट होने से स्वरूपान्तर्गत व्यक्ति का भान भी अवश्य हो जायेगा ।' - तो इस के उपर प्रभविकल्प हैं कि 'हर स्थान में हर काल में जाति स्वयं व्यक्तिनिष्ठ ही होती है ऐसा प्रत्यक्ष से ज्ञात किया या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से तो वैसा ज्ञान नहीं होता, क्योंकि हर काल में और हर स्थान में रहे हुये असंख्य व्यक्तियों का एक साथ प्रत्यक्ष होना संभव नहीं है तो फिर उन व्यक्तियों में अवस्थित जाति का भी एक साथ एक काल में प्रत्यक्ष कैसे होगा ? - "एक साथ भले प्रत्यक्ष न हो सके किंतु प्रत्यक्ष कर के, जाति की व्यक्ति में अवस्थिति का प्रत्यक्ष कर लेंगे-" ऐसा भी कहना व्यर्थ है, क्योंकि व्यक्तियों का सन्तान सीमातीत हैं, उन सभी का क्रमश: प्रत्यक्ष करने जायेंगे तो असंख्य काल बीत जायेगा, फिर भी अन्त नहीं आयेगा, इस लिये वैसा प्रत्यक्ष सम्भवबाह्य होने से व्यक्ति में जाति की अवस्थिति का भान अशक्य है। यदि कहें कि- 'सर्वकाल में सर्व स्थान में, व्यक्ति में जाति-अवस्थिति का प्रत्यक्ष असंभव होने पर भी किसी एक काल में किसी एक स्थान में तो वैसा प्रत्यक्ष शक्य है, उसी से व्यक्ति में जाति-अवस्थिति की सिद्धि हो जायेगी'- तो यह भी अयुक्त है क्योंकि वैसा प्रत्यक्ष होने पर भी प्रत्येक काल में प्रत्येक स्थान में व्यक्ति में जाति की अवस्थिति का प्रत्यक्षभान प्राप्त न होने से 'व्यक्ति में अवस्थिति' यह जाति का स्वरूप होने की बात सिद्ध नहीं हो पायेगी। ___ अनुमान से भी यह बात सिद्ध नहीं होगी, क्योंकि पूर्वकालीन प्रत्यक्ष के विना वैसे साध्य की सिद्धि में अनुमान समर्थ नहीं है । अनुमान तो साध्य और लिंग का सहचार प्रत्यक्ष से देख लेने के बाद ही कभी प्रवृत्त हो सकता है, अत: 'व्यक्ति में जाति की अवस्थिति' रूप साध्य के प्रत्यक्ष के अभाव में अनुमान की प्रवृत्ति रुक जायेगी । निष्कर्ष, उपरोक्त प्रत्यक्ष और अनुमान के अभाव में 'व्यक्ति में जाति अवस्थिति' रूप जाति का स्वरूप सिद्ध न होने पर जाति के द्वारा व्यक्ति का भान उपपन्न नहीं हो पायेगा। * नील-उत्पल के सामानाधिकरण्य की असंगति* और एक आपत्ति यह है- जब आप जाति को शब्दवाच्य मानना चाहते हैं तब, नील और उत्पल शब्दों का सामानाधिकरण्य (सहोचार होने पर नीलवर्णविशिष्ट कमलरूप एक अर्थ का बोधकत्व) नहीं घटेगा । कारण, अब तो 'नील' पद नीलत्वजाति का और 'उत्पल' पद उत्पलत्व जाति का वाचक बना, ये दोनों जाति परस्पर भिन्न हैं इस लिये नील और उत्पल पद परस्पर भिन्न अर्थ के बोधक बन गये । जिन दो पदों से परस्पर भिन्न अर्थ की प्रतीति होती है उन में सामानाधिकरण्य की व्यवस्था सम्मत नहीं है । उदा. 'घट' पद और 'पट' पद, परस्पर भिन्न घटत्व-पटत्व जाति के बोधक हैं, यहाँ 'घट: पट:' ऐसा सामानाधिकरण्य किसी को भी सम्मत नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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