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श्री सम्मति- तर्कप्रकरणम्
नाप्यनुमानेन तदभावे तदनवतारात् । अथाप्यर्थापत्त्या सम्बन्धवेदनम् - तथाहि, व्यवहारकाले शब्दार्थौ प्रत्यक्षे प्रतिभातः, श्रोतुश्च शब्दार्थप्रतीतिं चेष्टया प्रतिपद्यन्ते व्यवहारिणः, तदन्यथानुपपत्त्या तयोः सम्बन्धं विदन्ति । अत्रोच्यते - सिद्धयत्येवं काल्पनिकः सम्बन्धः तथाहि श्रोतुः प्रतिपत्तिः संकेतानुसारिणी दृश्यते, कलि- मार्यादिशब्देभ्यो हि द्रविडाऽऽर्ययोर्विपरीतत्प्रतिपत्तिदर्शनाद् न नियतः सम्बन्धो युक्तः । सर्वगते च तस्मिन् सिद्धेऽपि न नियतार्थप्रतिपत्तिर्युक्ता । प्रकरणादिकमपि नियमहेतुः नियतासिद्धौ सर्वमनुपपन्नम् । तथाहि - प्रकरणादयः शब्दधर्मः, अर्थधर्मः, प्रतिपत्तिधर्मो वा ? " शब्दधर्मे तस्मिन् शब्दरूपं नियतार्थप्रतिपत्तिहेतुरिष्टं स्यात्, तच्च सर्वार्थान् प्रति तुल्यत्वात् न युक्तम् । अर्थोऽपि ★ अनुमानादि से सम्बन्धवेदन अशक्य ★
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शब्द और अर्थ के बीच रहने वाले सम्बन्ध का बोध प्रत्यक्ष से शक्य नहीं है तो अनुमान से भी शक्य नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से अगृहीत वस्तु के बोध के लिये अनुमान की प्रवृत्ति होती नहीं है ।
अर्थापत्तिप्रमाण भी सम्बन्धबोध के लिये असमर्थ है । यहाँ इस प्रकार अर्थापत्ति का सामर्थ्य यदि दिखाया जाय कि - "वचनप्रयोग के अवसर पर बोलने वाले के शब्दानुसार सुनने वाले की प्रवृत्ति को देखते वक्त शब्द और उसके अर्थ का प्रत्यक्षबोध होता है । वचनप्रयोग करनेवाले, श्रोताओं की चेष्टा को देखकर समझ जाते हैं कि श्रोताओं को हमारे शब्दों से अर्थ का भान हो रहा है । शब्द और अर्थ के बीच विना किसी सम्बन्ध के इस अर्थमान की उपपत्ति (घटमानता) अशक्य है - इस अर्थापत्ति के फलरूप में सम्बन्ध का बोध सिद्ध होता है ।' तो इस के ऊपर अपोहवादी कहता है कि अर्थापत्ति से सम्बन्धबोध सिद्ध होने पर भी सिद्ध
होने वाले सम्बन्धबोध का विषयभूत सम्बन्ध काल्पनिक ही होना चाहिये । देखिये श्रोता को शब्द सुन कर जो अर्थबोध होता है वह अपने अपने संकेतबोध के अनुसार ही होता है इतना तो प्रसिद्ध ही है । उदा० द्रविड और आर्य प्रजा में कलि, मारी आदि शब्दों से, अपने अपने संकेतबोधानुसार एक-दूसरे से भिन्न ही अन्तकाल वर्षा - उपसर्ग आदि अर्थों का भान होता है यह देखा गया है । शब्द और अर्थ के बीच अगर कोई नियत वास्तविक सम्बन्ध होता तब तो चाहे द्रविड हो चाहे आर्य, सभी को नियत सम्बन्ध से नियत एक ही अर्थ का ( समान अर्थ का) बोध होना जरूरी था, किन्तु होता नहीं है इसलिये यह सिद्ध है कि नियत कोई वास्तविक सम्बन्ध है ही नहीं, अतः अर्थापत्ति से अगर सम्बन्धबोध सिद्ध होता हो तो उस सम्बन्धबोध के विषय को काल्पनिक ही मानना पडेगा । सम्बन्ध को काल्पनिक मानने से सर्वत्र पृथक् पृथक् काल्पनिक सम्बन्ध से पृथक् पृथक् अर्थों का बोध घट सकता है । यदि किसी प्रकार सर्वत्र व्यापक एक वास्तविक सम्बन्ध सिद्ध हो जाय तो भी वास्तविक सम्बन्ध एक होने से सर्वत्र एक ही अर्थ का बोध होगा, किन्तु नियतरूप से भिन्न भिन्न प्रजा को भिन्न भिन्न अर्थ का बोध होता है उसकी संगति नहीं हो सकेगी ।
[ प्रकरणादिकमपि नियमहेतुः नियतार्थसिद्धौ सर्वमनुपन्नम् ] यदि कहें कि - 'सर्वत्र व्यापक एक वास्तविक सम्बन्ध होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रकरणादि में अर्थबोध भिन्न भिन्न होता है, वहाँ भिन्न भिन्न प्रकरणादि ही नियत रूप से भिन्न भिन्न अर्थबोध का नियामक होता है, इस प्रकार नियत एक वास्तविक सम्बन्ध के पक्ष में भी नियत अर्थबोध घट सकता है' - तो यहाँ अपोहूवादी कहता है कि यह सब प्रकरणादि स्वयं असंगत है । देखिये- ये जो प्रकरणादि हैं वे शब्दका धर्म है ? अर्थ का धर्म है या 'बोध का धर्म है ? यदि प्रकरणादि D संसर्गो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता । अर्थः प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य संनिधिः । वाक्यप० का० २- लो० ३१७
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