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________________ १३४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कल्पना तु तामुल्लिखन्ती व्यवसीयते 'गौढ़ेंः' इति । एतदप्यसत्, कल्पनाज्ञानेऽपि जातेरनवभासनात् । तथाहि - कल्पनाऽपि पुरः परिस्फुटमुद्भासमानं व्यक्तिस्वरूपं व्यवस्यन्ती हृदि चाभिजल्पाकारं प्रतीयते, न च तद्व्यतिरिक्तः वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यः प्रतिभासो लक्ष्यते वर्णादिस्वरूपरहितं च जातिस्वरूपमभ्युपगम्यते, तन कल्पनावसेयाऽपि जातिः । यच्च कचिदपि ज्ञाने नाऽवभाति तदसत् यथा शशविषाणम्, जातिश्च कचिदपि ज्ञाने परिस्फुटव्यक्तिप्रतिभासवेलायां स्वरूपेण नाभाति तन सती । अथापि शब्दलिंगजे ज्ञाने स्वरूपेण सा प्रतिभाति तत्र सम्बन्धप्रतिपत्तेः, स्वलक्षणस्य तत्राऽसाधारणरूपतया प्रतिभासनावसायात् सम्बन्धग्रहणासम्भवाच्च तद् न शब्दलिंगभूमिः । ननु तत्रापि परिस्फुटतरो व्यक्तेरेवाकारः शब्दस्य वा प्रतिभाति न तु वर्णाकाररहितोऽनुगतैकस्वरूपः प्रयोजनसामर्थ्यव्यतीतः कश्चिदाकारः केनचिदपि लक्ष्यते, शब्द-लिंगान्वयं हि दर्शनमर्थक्रियासमर्थतयाऽस्फुटदहनाकारमाद इन्द्रियजन्य बुद्धि को लेकर यदि उसे उभयात्मक कहते हो तो वह अयुक्त है क्योंकि वह तो असाधारणरूप यानी व्यावृत्ति-आत्मक ही होती है। बुद्धि जब दो बाह्यार्थाकार को स्पष्टरूप से उद्भासित करती है तब उस समय उन से भिन्न या अभिन्न कोई भी साधारणरूप दर्शनारूढ निर्विकल्प ज्ञानारूढ हो ऐसा भान नहीं होता है । अर्थात् निर्विकल्प प्रत्यक्ष में जब बाह्य दो व्यक्ति का संवेदन होता है तब तीसरे साधारणरूप का दर्शन नहीं होता है। जातिवादी : हम विकल्पबुद्धि को उभयात्मक बता रहे हैं । सुनिये - कल्पनापोढ दर्शन में तो जाति का उल्लेख नहीं होता है किन्तु अनुव्यवसाय 'गाय... गाय' इस प्रकार साधारणरूप का उल्लेख करती हुई विकल्पबुद्धि को प्रकट करता है। व्यक्तिवादी :- यह बात गलत है, क्योंकि विकल्पबुद्धि में भी जाति का संवेदन नहीं होता है । देखियेविकल्पबुद्धि भी स्पष्टरूप से असाधारण स्वरूप को उद्भासित करती हुइ और मनोगत अभिजल्पाकार का उल्लेख करती हुयी ही लक्षित होती है । असाधारणस्वरूप एवं अभिजल्पाकार से अतिरिक्त यानी वर्ण-आकृति-अक्षर' से अमुद्रित हो ऐसा कोई साधारण तत्त्व का प्रतिभास अनुभव में लक्षित नहीं होता है । साधारणरूप यानी जाति को तो आप वर्णादिरूप से रहित मानते हैं । निष्कर्ष, विकल्पबुद्धि से भी जाति का उद्भासन नहीं होता । किसी भी ज्ञान में जिस का भान न हो उस को मिथ्या ही मान लेना चाहिये, जैसे खरगोशशिंग ज्ञानमात्र में अभासित होने से मिथ्या माना जाता है । कोई भी ज्ञान लो, लेकिन उस में स्पष्ट रूप से हर वक्त व्यक्ति का ही भान होता है, किसी भी समय जाति का सामान्यरूप से वहाँ अनुभव नहीं होता है, इस लिये वह सत्स्वरूप नहीं है मिथ्या है। जातिवादी :- शब्द से या लिंग से उत्पन्न ज्ञाना में जाति का स्वरूपत: भान होता ही है, क्योंकि जाति नित्य होने से उस में सम्बन्ध(संकेत) का ग्रहण शक्य है । स्वलक्षण तो शब्द और लिंग की क्रीडाभूमि नहीं बन सकता, उस के दो कारण हैं, एक- स्वलक्षण का तो असाधारण रूप से प्रतिभास होने का ही अनुभव होता है । दूसरा, क्षणिक होने से उस में सम्बन्ध का ग्रहण अशक्य है । जातिविरोधी :- शब्द से या लिंग से उत्पन्न ज्ञान में भी जाति का भान नहीं होता किन्तु व्यक्ति का १. वर्ण-रूप, आकृति-संस्थान और अक्षर-गकार, औकार, विसर्गादि अभिप्रेत हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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