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________________ १३३ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ पक्षः, जातेरेवाऽसम्भवात् । तथाहि - दर्शने व्यक्तिरेव चकास्ति, पुरः परिस्फुटतयाऽसाधारणरूपानुभवात् । अथ साधारणमपि रूपमनुभूयते 'गौ!:' इति - तदसत, शाबलेयादिरूपविवेकेनाप्रतिभासनात् । न च शाबलेयादिरूपमेव साधारणमिति शक्यं वक्तुम्, तस्य प्रति(पत्ति?)व्यक्ति मित्ररूपोपलम्भात् । तथा च पराकृतमिदम् - [लो०वा आकृ. ५-७] "सर्ववस्तुषु बुद्धिश्च व्यावृत्त्यनुगमात्मिका । जायते व्यात्मकत्वेन विना सा च न युज्यते ॥ न चात्रान्यतरा भ्रान्तिरुपचारेण वेष्यते । दृढत्वात् सर्वथा बुद्धेन्तिस्तद् प्रान्तिवादिनाम् इति॥" 'व्यात्मिका बुद्धिः' इति यदीन्द्रियबुद्धिमभिप्रेत्योच्यते तदयुक्तम्, तस्या असाधारणरूपत्वात्, न हि द्वयोर्वहिर्लाह्याकारतया परिस्फुटमुद्भासमानयोस्तदभिनं भिनं वा दर्शनारूढं साधारणं रूपमाभाति । अथ कल्पनाबुद्धः ढ्याकारा अभिधीयते । तथाहि - यदि नामापास्तकल्पने दर्शने न जातिरुद्भाति करता है- प्रस्तुत चर्चा में पहले तो इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि जिस संवेदन में जो अवभासित होता हो उसीको उस संवेदन का विषय मानना चाहिये । जैसे- इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षबोध में नीलादि अर्थस्वरूप स्पष्टरूप से भासित होता है, इस कारण नीलादि ही उसका विषय माना जाता है । शब्द और लिंग से प्रसूत होने वाले विकल्पात्मक बोध में उसका अपना स्वरूप ही भासित होता है, बाह्यार्थ का अपना कुछ भी अंश उसमें प्रतिभासित होता नहीं है । अत: ज्ञान के अपने स्वरूप को ही शब्द-लिंगजन्य बोध का विषय मानना चाहिये, बाह्यार्थ को नहीं । इस प्रकार, शब्द या लिंग से जन्य अन्यापोह कोई बाह्य वस्तु नहीं है, क्योंकि बाह्यार्थ में शब्द और लिंग का कोई संबंध ही नहीं है । बाह्यार्थ का जिसमें स्पर्श भी नहीं है ऐसा संवेदनमात्र ही अन्यापोह है । जाति आदि बाह्यरूप में अभिमत पदार्थ को शब्द या लिंग से जन्य प्रतीति के विषय मानने पर ये प्रश्न हैं कि शब्द-लिंगजन्य प्रतीति का विषय जाति है या व्यक्ति ? पहला पक्ष इसलिये असंगत है कि जाति के अस्तित्व का ही सम्भव नहीं है । प्रत्यक्षदर्शनात्मक बोध में तो सिर्फ व्यक्ति (स्वलक्षण) का ही बोध माना जाता है, क्योंकि स्पष्टरूप से तत्तद् वर्णादिविशिष्ट व्यक्ति का ही वहाँ अनुभव होता है। जातिवादी :- 'गाय...गाय' इस प्रकार साधारणस्वरूप जाति का भी यहाँ अनुभव होता है। व्यक्तिवादी :- यह गलत बात है। कारण, शाबलेय- बाहुलेयादि तत्तद् व्यक्ति को छोड कर और किसी (जाति) का भी वहाँ अनुभव नहीं होता । 'वे शाबलेयादि ही साधारण(जाति)रूप है' ऐसा कहना अशक्य है क्योंकि 'शाबलेय' ही यदि साधारणरूप होता तब तो व्यक्ति-व्यक्ति में उस का एकरूप से अनुभव होता, किन्तु यहाँ तो एक शाबलेयरूप से तो दूसरा बाहुलेयरूप से, इस प्रकार भिन्न भिन्न रूप से अनुभूत होता है।। इस चर्चा से, श्लोकवार्त्तिकगत कुमारिल भट्ट के निम्नोक्त वचन का निरसन हो जाता है । कुमारिल भट्ट ने यह कहा है कि - "वस्तुमात्र में व्यावृत्ति (विशेष) और अनुवृत्ति (सामान्य) से अभिन्न स्वरूप बुद्धि होती है । अगर वस्तु उभयात्मक (सामान्य-विशेष द्वयात्मक) न होती तो बुद्धि भी द्वयात्मक न होती । उभय बुद्धि में से एक (यानी सामान्य बुद्धि) भ्रमात्मक है या औपचारिक है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दोनों बुद्धि दृढ यानी स्पष्ट निश्चयात्मक होती है । अत: 'उन में से एक को भ्रमात्मक कहना' ही स्वयं भ्रान्ति है।" - इस वचन का अब निरसन हो जाता है क्योंकि बुद्धि उभयात्मक नहीं किन्तु व्यावृत्ति-आत्मक ही होती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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