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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् एवं श्रोतुरपि योज्यम् । 'एकार्थाध्यवसायित्वं कथं वक्तृ-श्रोत्रोः परस्परं विदितम्' इति न वाच्यम्, यतो यदि नाम परमार्थतो न विदितम् तथापि भ्रान्तिबीजस्य तुल्यत्वादस्त्येव परमार्थतः स्वसंविदितं प्रतिबिम्बकम् । स्वप्रतिभासानुरोधेन च तैमिरकद्वयवद् भ्रान्त एव व्यवहारोऽयमिति निवेदितम्, तेनैकार्थाऽ. ध्यवसायवशात् संकेतकरणमुपपद्यत एव। न चाप्यानर्थक्यं संकेतस्य, संकेतव्यवहारकालव्यापकत्व(म्) प्रतिबिम्बे वक्तृश्रोत्रोरध्यवसायात् न परमार्थतः। यदुक्तम् - "व्यापकत्वं च तस्येदमिष्टमाध्यवसायिकम्। मिथ्यावभासिनो होते प्रत्ययाः शब्दनिर्मिताः ॥" [त० सं० १२१३] ततः स्थितमेतद् न शब्दस्याकल्पितोऽर्थः सम्भवति ।
[संविद्वपुरन्यापोहवादिप्रज्ञाकरमतोपन्यासः ] अपरस्त्वन्यथा प्रमाणयति-इह खलु यद् यत्र प्रतिभाति तत् तस्य विषयः, यथाऽक्षजे संवेदने परिस्फुटं प्रतिभासमानवपुरात्मा नीलादिस्तद्विषयः । शब्द-लिंगान्वये च दर्शनप्रसवे बहिरर्थस्वतत्त्वप्रतिभासरहितं स्वरूपमेव चकास्ति, तत् तदेव तस्य विषयः । पराकृतबहिरर्थस्पर्श च संविद्वपुरन्यापोहः वस्तुनि शब्दलिंगवृत्तेरयोगात् । तथाहि- जाति तयोर्विषयः, व्यक्तिर्वा तद्विशिष्टा ? तत्र न तावदायः कि 'जिस अर्थ को मैं ग्रहण करता हूँ उसी को यह (श्रोता) भी ग्रहण करता है।' श्रोता को भी ऐसा ही भ्रम होता है कि 'जिस अर्थ को मैं ग्रहण करता हूँ उसी को यह (वक्ता) प्रतिपादन करता है।'
प्रश्न :- वक्ता और श्रोता को एक अर्थ का भ्रान्त अध्यवसाय भले होता हो किन्तु उन्हें यह कैसे पता चला कि हम दोनों को एक ही अर्थ विज्ञात हुआ है ?
___उत्तर :- ऐसा प्रश्न निरर्थक है। कारण, वास्तव में उन दोनों को एकार्थाध्यवसायिता का भले भान न हो, किन्तु भ्रान्तिबीज समान होने के कारण, अपने अपने वास्तविक प्रतिबिम्ब का तो उन्हें संवेदन होता ही है। पहले ही हमने स्पष्ट कह दिया है कि तिमिररोगीयों की तरह अपने भ्रान्त प्रतिभास के कारण वे दोनों वैसे भ्रान्त शब्दव्यवहार करते हैं । इस प्रकार भ्रान्त एकार्थाध्यवसायिता के बल पर (भ्रान्त) संकेतक्रिया की भी उपपत्ति हो जाती है।
क्षणभंगुरता को प्रस्तुत कर के यहाँ संकेतव्यर्थता का आपादन भी नहीं हो सकता, क्योंकि यद्यपि प्रतिबिम्ब क्षणभंगुर ही है, फिर भी वक्ता-श्रोता दोनों को वासनाप्रभाव से स्व स्व प्रतिबिम्ब में संकेत-व्यवहारकालव्यापकता का भी भ्रान्त अध्यवसाय उत्पन्न होता है, परमार्थ से तो ऐसा है ही नहीं। तत्त्वसंग्रह में कहा है कि- "ये शब्दजन्य सभी बुद्धियाँ मिथ्याज्ञानरूप ही होती है और संकेतक्रिया की सार्थकता के लिये अपेक्षित संकेत-व्यवहारकालव्यापकत्व भी प्रतिबिम्ब में अध्यवसाय के बल से इष्ट है । (परमार्थरूप से इष्ट नहीं है।)"
समूचे अपोहवाद का निष्कर्ष यही फलित होता है कि शब्द का वाच्य कोई अकल्पित (वास्तविक) अर्थ नहीं होता।
*संवेदनस्वरूप अन्यापोह की वाच्यता-प्रज्ञाकरमत ★ शब्द का कोई वास्तविक वाच्यार्थ नहीं है इस बात को अन्यवादी (=प्रज्ञाकर) इस ढंग से प्रमाणित
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