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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १३५ दानं प्रवर्तयति जनम्, तत् कथमन्यावभासस्य दर्शनस्यान्याकारो जात्यादिविषयः ? यदि च जात्यादिरेव लिंगादिविषयः तथा सति जातेरर्थक्रियासामर्थ्यविरहादधिगमेऽपि शब्द-लिंगाभ्यां न बहिरर्थे प्रवृत्तिर्जनस्येति विफलः शब्दादिप्रयोगः स्यात् । अथ जातेरर्थक्रियासामर्थ्यविरहेऽपि स्वलक्षणं तत्र समर्थमिति तदर्था प्रवृत्तिरर्थिनाम् । ननु तत् स्वलक्षणं लिंगादिजे दर्शने सदपि न प्रतिभाति, न चात्मानमनारूढेऽर्थे विज्ञानं प्रवृत्तिं विधातुमलम् सर्वस्य सर्वत्र प्रवर्तकत्वप्रसंगात् । यत् तु तत्र प्रतिभाति सामान्यं न तद् दाहादियोग्यम्, यदपि ज्ञानाभिधानं तस्य फलं मतं तदपि पूर्वमेवोदितमिति न तदर्थाऽपि प्रवृत्तिः साध्वी । अथ प्रथमं शब्द-लिंगाभ्यां जातिरवसीयते ततः पश्चात् तया स्वलक्षणं लक्ष्यते तेन विना तस्या ही अथवा शब्द का स्फुट आकार वहाँ भासित होता है । वर्ण या विशेष आकार से हीन, एक हो और अनेक में रहता हो ऐसे स्वरूपवाला, जिस का न कोई प्रयोजन है न कुछ सामर्थ्य है, ऐसा कोई भी सामान्याकार वहाँ (शब्दलिंगजन्य ज्ञान में) किसी को भी लक्षित नहीं होता । ऐसे तो देखा जाता है कि शब्द या लिंग से उत्पन्न दर्शन (यानी अस्पष्टाकार ज्ञान) दाहादि अर्थक्रिया करने में समर्थ ऐसे अस्फुट अग्नि-आकार को ग्रहण करता हुआ उष्णता के अर्थी पुरुष को उसमें प्रवृत्त करता है । मतलब यह है कि वहाँ अग्निरूप व्यक्ति का ही अवभास होता है । तब यहाँ प्रश्न उठता है कि अग्नि आदि जातिभिन्न वस्तु के प्रकाशक दर्शन का, जाति आदि अन्य आकार कैसे विषय हो सकता है ? पहले ही यह नियम कहा है कि जो जहाँ भासता है वही उस का विषय हो सकता है । इतना होते हुए भी यदि आप जाति आदि को ही लिंगादिजन्य ज्ञान का विषय मानेंगे तो ऐसा होने पर अर्थक्रिया सामर्थ्यशून्य जाति का ही उस से बोध होगा, और उसका बोध होने पर भी वह दाहादि सामर्थ्यशून्य होने के कारण, शब्द से या लिंग से जो परम्परया बाह्यार्थ में लोगों की प्रवृत्ति होती है वह रुक जायेगी । फलत: शब्दादि का प्रयोग भी निरर्थक बन जायेगा। जातिवादी :- जाति में अर्थक्रिया-सामर्थ्य न होने पर भी प्रवृत्ति नहीं रुकेगी, क्योंकि स्वलक्षण अर्थक्रिया के लिये समर्थ है। __ जातिविरोधी :- स्वलक्षण समर्थ होने पर भी लिंगादिजन्य बोध में उसका भान कहाँ होता है ? नहीं होता है । जब तक कोई भी समर्थ पदार्थ विज्ञानारूढ नहीं होता तब तक उस अर्थ में विज्ञान के द्वारा प्रवृत्ति का होना शक्य नहीं है। फिर भी मानेंगे तो जो जो अर्थ जिन जिन विज्ञान का विषय नहीं हुआ ऐसे सभी विज्ञान के द्वारा उन उन अर्थों में प्रवृत्ति प्रसंग का अनिष्ट उपस्थित होगा । यह तो आप को भी मान्य है कि आप के मत में शब्दादिजन्य बुद्धि में भासित होने वाला सामान्य दाहादि अर्थक्रिया करने के लिये समर्थ नहीं होता । यद्यपि आप यह कहेंगे कि 'जाति का ज्ञान और उस के लिये किया जाने वाला 'सामान्य' आदि शब्दप्रयोग (=अभिधान) ये दो फल उत्पन्न करने में जाति का सामर्थ्य होता ही है ।' किन्तु ऐसा कहने पर भी, ऐसे फल के लिये प्रवृत्ति का होना उचित नहीं माना जा सकता क्योंकि ये दो फल तो शब्दादिजन्य जातिविषयक बुद्धि के पहले ही उदित यानी उदयप्राप्त रहता है ।। * लक्षितलक्षणा द्वारा जातिभान से व्यक्तिभान ★ जातिवादी :- 'लक्षित-लक्षणा'संज्ञक वृत्ति के द्वारा शब्द से स्वलक्षणरूप व्यक्ति का भान हो सकता है । जैसे 'द्विरेफ' शब्द से पहले दो रेफ (यानी र)वाले 'भ्रमर' पद लक्षित होता है, फिर तात्पर्य अनुपपत्तिमूलक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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