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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अथ यथा स्वलक्षणादौ संकेताऽसम्भवः वैफल्यं च तथाऽपोहपक्षेऽपि, ततश्चाकृतसमयत्वात् तन्मात्रद्योतकत्वमपि शब्दानां न युक्तमित्यनैकान्तिकता प्रथमहेतोः । तथाहि- न प्रतिविम्बात्मकोऽपोहः वक्तश्रोत्रोरेकः सिध्यति । न ह्यन्यदीयं ज्ञानमपरोऽग्दिर्शनः संवेदयते, प्रत्यात्मवेयत्वा(द) ज्ञानस्य । अज्ञानव्यतिरिक्तश्च परमार्थतः प्रतिबिम्बात्मलक्षणोऽयोहः । ततश्च वक्तृ-श्रोत्रोरेकस्य संकेतविषयस्यासिद्धेः कुत्र संकेतः क्रियेत गृहोत वा ? न हसिद्धे वस्तुनि वक्ता संकेतं कर्तुमीशः, नापि श्रोता ग्रहीतुम् अतिप्रसंगात् । तथाहि - श्रोता यत् प्रतिपद्यते स्वज्ञानारूढमर्थप्रतिबिम्बकं न तद् व्यवहारकालेऽनुभूयते तस्य क्षणक्षयित्वेन चिरनिरुद्धत्वात्, यच्च व्यवहारकालेऽनुभूयते न तत् संकेतकाले दृष्टम् अन्यस्यैव प्रसिद्ध ही है कि जिस शब्द को जिस अर्थ में संकेतित किया जाता है, उस से भिन्न अर्थ का वह शब्द वाचक नहीं हो सकता । [यही अनन्यभाक्त्व है।] और हमने यह बता दिया है कि वास्तव में किसी भी स्वलक्षणादि अर्थ में संकेत करना सम्भव नहीं है और क्षणभंगुरता के कारण कदाचित् वर्तमान अर्थ में संकेत कर लिया जाय तो भी उस से भावि अर्थ का बोध संभव न होने से 'संकेत करना' निष्फल है। इस का मतलब यह हुआ कि 'कदाचित् कोई शब्द अकल्पितार्थ का भी वाचक क्यों न हो' ऐसा संदेह निरवकाश है। यदि ऐसे संदेह को अवकाश मिलता तो उस विपक्षरूप में संदिग्ध शब्द में संकेतसापेक्षता हेतु के रह जाने से विपक्षव्यावृत्ति भी संदिग्ध हो जाने पर हेतु में साध्यद्रोह की शंका को अवकाश मिल जाता, किन्तु विपक्ष का संदेह असंभव होने से संदिग्ध विपक्षव्यावृत्ति को भी यहाँ अवकाश नहीं है, अत: हेतु साध्यद्रोही भी नहीं है।
★ अपोहपक्ष में संकेताऽसम्भवादि की आशंका ★ पूर्वपक्षी :- आपने शब्दों में संकेतसापेक्षत्व हेतु से प्रतिबिम्बात्मक अपोहमात्र-वाचकत्व को सिद्ध किया है किन्तु विचार करने पर शब्दों में अपोहमात्रवाचकत्व घट नहीं सकता । देखिये- स्वलक्षण में जैसे आपने संकेत का असंभव और वैफल्य दिखाया है वैसा अपोहपक्ष में भी है । तात्पर्य, अपोह में भी संकेत का असंभव
और वैफल्य होने से अपोहमात्रवाचकत्व शब्दों में नहीं घटेगा, फिर भी आप का कहा हुआ संकेतसापेक्षत्व तो वहाँ रहेगा, इस प्रकार वह संकेतसापेक्षत्व प्रथम हेतु साध्यद्रोही ठहरा । इसको विस्तार से देखिये- वक्ता का तत्तत् शब्दजनक अपोह (प्रतिबिम्ब) और श्रोता का तत्तत्शब्दजन्य अपोह, ये दोनों एक नहीं हो सकते । कारण, एक व्यक्ति के ज्ञान का अन्य अल्पदर्शी व्यक्ति को संवेदन होता नहीं। ज्ञान तो ऐसा है कि जिस व्यक्ति में उत्पन्न होता है उसी को उसका संवेदन होता है । प्रतिबिम्बस्वरूप अपोह वास्तव में तो ज्ञानात्मक ही है, ज्ञान से भिन्न नहीं है। कहना यह है कि वक्ता और श्रोता, दोनों का साधारण ऐसा कोई एक अपोह रूप विषय ही न होने से विषयी यानी संकेत कहाँ किया जायेगा और कहाँ उस का ग्रहण हो सकेगा ? [वक्ता अपने प्रतिबिम्ब में संकेत करेगा तो श्रोता को उसका ग्रहण नहीं होगा, श्रोता का प्रतिबिम्ब वक्ता को अगृहीत होने से उसमें तो संकेत कर ही नहीं सकता ।] असिद्ध [यानी अज्ञात वस्तु के बारे में न तो वक्ता संकेत करने के लिये समर्थ है और न श्रोता उस के ग्रहण के लिये समर्थ है यह वास्तविकता है, इसे अगर नहीं मानेंगे तो हर एक वस्तु में हर एक शब्द का संकेत कोई भी करने लग जायेगा और श्रोता को भी किसी एक शब्द का संकेत अज्ञात समस्त वस्तु में ग्रहण हो जायेगा- यह अतिप्रसंग अवारित रहेगा । देखिये- श्रोता अपने ज्ञान में आरूढ जिस अर्थप्रतिबिम्ब का बोध करता है उस प्रतिबिम्ब का वक्ता को संवेदन नहीं होता ।
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