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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१२९ सुतादिकं वस्त्वन्यव्यावृत्तमपोहाश्रयो नास्तीति किमधिष्ठानोऽपोहो वाच्य इति वक्तव्यम्: यतो न तद्विषयाः शब्दा जात्यादिवाचकत्वेनाशंक्याः 'वस्तुवृत्तीनां हि शब्दानां किं रूपमभिधेयम् आहोश्वित् प्रतिबिम्बम्' इत्याशंका स्यादपि, अभावस्तु वस्तुविवेकलक्षण एवेति तवृत्तीनां शब्दानां कथमिव वस्तुविषयत्वाशंका भवेत् इति निर्विषयत्वं स्फुटमेव तत्र शब्दानां प्रतिबिम्बकमात्रोत्पादादवसीयत एव ।
अत एव 'ये संकेतसव्यपेक्षास्तेऽर्थशून्याभिजल्पाऽऽहितवासनामात्रनिर्मितविकल्पप्रतिबिम्बमात्रावयोतकाः, यथा वन्ध्यापुत्रादिशब्दाः, कल्पितार्थाभिधायिनः संकेतसव्यपेक्षाश्च विवादास्पदीभूता घटादिशब्दा' इति स्वभावहेतुः । यद्वा परोपगतपारमार्थिकजात्याद्यर्थाभिधायका न भवन्ति घटादिशब्दाः, संकेतसापेक्षत्वात्, कल्पितार्थाभिधानवत् । न च हेतोरनैकान्तिकता, कचित् साध्यविपर्ययेऽनुपलम्भात् अशक्यसमयत्वात् अनन्यभाक्त्वाच्चेति । पूर्व (३०-४) स्वलक्षणादौ संकेताऽसम्भवस्य संकेतवैफल्यस्य च प्रसाधितत्वान हेतोः संदिग्धविपक्षव्यतिरेकता । है। कारण, वन्ध्यापुत्रादि (काल्पनिक अर्थ) संबन्धी शब्दों के बारे में, 'ये जातिवाचक हैं या व्यक्तिआदि के वाचक' ऐसी आशंका को अवकाश ही नहीं होता है। किसी वस्तु के वाचक (यानी वस्तुसदृश प्रतिबिम्ब के उत्पादक) शब्दों के बारे में ही ऐसी शंका को अवकाश होता है कि 'उनका अर्थ कोई बाह्यरूप (अर्थ) है या प्रतिबिम्ब ?' वन्ध्यापुत्रादिरूप अभाव तो वस्तु से सर्वथा विलक्षण(तुच्छ)स्वरूप होता है, अत: उन के वाचकरूप में कल्पित 'वन्ध्यापुत्र' आदि शब्दों के बारे में 'वे वस्तुस्पर्शी है या नहीं ऐसी शंका को अवकाश ही कहाँ है ? तात्पर्य, वे शब्द विषयातीत हैं और वैसे शब्दों से सिर्फ शब्दमात्र के ही प्रतिबिम्ब का उदय होता है उस से यह ज्ञात होता है कि वन्ध्यापुत्रादिशब्द वस्तुस्पर्शी नहीं है।
★ संकेतसापेक्षता से विकल्पप्रतिबिम्ब के वाचकत्व का अनुमान ★ उपरोक्तरीति से 'वन्ध्यापुत्र' आदि शब्दों में सिर्फ कल्पनाजनित प्रतिबिम्बमात्र का कारकत्व सिद्ध है अत एव उस के दृष्टान्त से यह स्वभावहेतुक अनुमान किया जा सकता है कि जो शब्द संकेतसापेक्ष होते हैं वे अर्थशून्य अभिजल्प (शब्द) मात्र के बार बार प्रयोग से जनित जो वासना, उस के द्वारा उत्पन्न विकल्पप्रतिबिम्बमात्र के (वे शब्द) वाचक होते हैं। उदा० - 'वन्ध्यापुत्र' आदि शब्द कुछ न कुछ अर्थ बोधित कराने के लिये संकेत सापेक्ष होते हैं (संकेत के विना उस से किसी भी अर्थ का बोध होता नहीं है) इसलिये वे सिर्फ अर्थास्पर्शी विकल्पप्रतिबिम्ब मात्र के ही वाचक होते हैं । विवादास्पद घटादिशब्द भी संकेतसापेक्ष ही होते हैं अत: वे भी कल्पित अर्थ (यानी अर्थाकार प्रतिबिम्ब) के ही वाचक हो सकते हैं । यहाँ संकेतसापेक्षता शब्दों का स्वभाव है, उसीको हेतु करके कल्पितार्थवाचकत्व का अनुमान किया जाता है।
अथवा - अनुमानप्रयोग इस तरह भी शक्य है- "घटादि शब्द (पक्ष) प्रतिवादिमान्य वास्तविक जाति आदि अर्थों के वाचक नहीं होते (साध्य), क्योंकि वे संकेतसापेक्ष होते हैं (हेतु) । जैसे कल्पित अर्थ के वाचक 'वन्ध्यापुत्र' आदि अभिधान (=नाम या संज्ञा)" (उदाहरण) । इस अनुमान में, हेतु में साध्यद्रोह की शंका का सम्भव नहीं है, क्योंकि साध्य से उलटा यानी अकल्पितार्थवाचक कोई भी सिद्ध ही नहीं है, जिस से कि उस में हेतु रह जाने से साध्यद्रोह का सम्भव हो सके । तथा, क्षणभंगुरता के कारण अकल्पितार्थ में संकेत का संभव ही नहीं है, फलत: अकल्पितार्थवाचक कोई हो नहीं सकता । तथा, प्रतिवादि के मत में इतना तो
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