________________
१२८
श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
-४) सामर्थ्यादन्यनिवृत्तेर्गम्यमानत्वात् न तु वाच्यतया । अवाच्यपक्षस्यानङ्गीकृतत्वादेव न तत्पक्षभाविदोषोदयावकाशः ।
'अपि चैकत्व-नित्यत्व' (७५ - ९) इत्यादावपि यदि पारमार्थिकैकत्वाद्युपवर्णनं कृतं स्यात् तदा हास्यकरणं भवतः स्यात् । यदा तु भ्रान्तप्रतिपत्त्रनुरोधेन काल्पनिकमेव तद् आचार्येणोपवर्णितं तदा कथमिव हास्यकरणमवतरति विदुषः ? किन्तु भवानेव विवक्षितमर्थमविज्ञाय दूषयन् विदुषामतीव हास्यास्पदमुपजायते ।
'तस्माद् येष्वेव शब्देषु नत्र्योग' इत्यादावपि ( ७५- १० ) ' न केवलं यत्र नत्र्योगस्तत्रान्यविनिवृत्यंशोऽवगम्यते, यत्रापि हि नञ्योगो नास्ति तत्रापि गम्यत एव' इति स्ववाचैवैतद् भवता प्रतिपादितम् ' स्वात्मैव गम्यते' (७५-१०) इत्यवधारणं कुर्वतः, अन्यथावधारणवैयर्थ्यमेव स्यात्, यतः 'अवधारणसामर्थ्यादन्यापोहोऽपि गम्यते ' इति स्फुटतरमेवावसीयते । न च वन्ध्यासुतादिशब्दस्य बाह्यं कोई त्रुटि नहीं है और अवाच्यत्व विकल्प स्वीकृत न होने से उस में दिये गये दोषों को भी अवकाश नहीं है।
उपरांत, कुमारिलने जो दिग्नागाचार्यवचन का उपहास करते हुए कहा था कि ( पृ० ७५-२० ) - " स्वरूपशून्य (तुच्छ) अपोह में जाति के एकत्व, नित्यत्व और सर्वाश्रयसमवेतत्व धर्मों का योजन करना बिना सूत्र - तन्तु के वस्त्र बुनने जैसा है" यहाँ अपोहवादी कहता है- एकत्वादि धर्मों को पारमार्थिक मान कर अगर हमने उनका अपोह में योजन किया होता तब तो उपहास करना युक्त है, किन्तु हकीकत ऐसी है कि भ्रान्त श्रोतावर्ग को शब्द से ज्ञात होने वाले अपोह में भ्रान्ति से काल्पनिक एकत्वादि का भी अध्यवसाय होता है इसलिये आचार्य ने भी काल्पनिक एकत्वादि का ही अपोह में योजन कर दिखाया है, इस में प्रबुद्ध विद्वान को हास्य का प्रसंग ही क्या है ? सच तो यह है कि आचार्य के विवक्षित अर्थ को बिना समझे ही आपने (कुमारिलने) जो उपहास का साहस किया है वही हास्यास्पद हो गया है ।
★ नञ् पद के विना भी अन्यनिवृत्ति का भान शक्य ★
कुमारिल ने उपसंहार में जो कहा था
"जिन शब्दों का 'नञ्' के साथ प्रयोग हो, सिर्फ उन से विधिरूप का ही भान होता है-" यहाँ अपोहवादी कहता
ही अन्यव्यावृत्ति अंश का बोध होता है, अन्यत्र है- आपने जो यहाँ विधिरूप का 'ही' ऐसा भारपूर्वक प्रयोग किया है, इस अपने प्रयोग से ही आप अर्थतः इस बात का सूचन कर बैठे हैं कि जहाँ नञ्प्रयोग हो, सिर्फ वहाँ ही अन्यव्यावृत्तिअंश का बोध होता है ऐसा नहीं है, जहाँ नञ्प्रयोग न हो वहाँ भी उसका बोध हो सकता है। कारण, विधिरूप का 'ही' इस भारपूर्वक कथन से अर्थतः विधिरूपसे भिन्न यानी निषेधरूप अंश का आप स्वयं निषेध (= व्यावृत्ति) करना चाहते हैं । इस प्रकार अनिच्छया भी आप निषेधांशरूप अन्य की व्यावृत्ति का प्रतिपादन कर बैठे। यदि आप ऐसा नहीं मानेंगे तो आप का 'ही' यह भारपूर्वक वचन व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि भारपूर्वककथनात्मक अवधारण के बल से अन्यापोह भी बुद्धिगत होता है यह बात अत्यन्त स्पष्टरूप में अवगत होती है। यदि ऐसा कहा जाय'आप के मत में 'वन्ध्यापुत्र' आदि शब्द भी अन्यापोह के ही वाचक है, किन्तु वह घट नहीं सकता, क्योंकि बन्ध्यापुत्र जैसा कोई अर्थ विश्वमात्र में न होने से, 'वन्ध्यापुत्र' शब्द से वाच्य अन्यापोह का आश्रयभूत कोई भी बाह्य पुत्रादिपदार्थ तो है नही, तो निराश्रित अन्यापोह का वह वाचक कैसे होगा ?' तो यह ठीक नहीं
-
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org