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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यच्वोक्तम् - "किं भावोऽथाभावः' इत्यादि (७३-४) तत्रापि यथाऽसौ बाह्यरूपतया भ्रान्तैरवसीयते न तथा स्थित इति बाह्यरूपत्वाभावान भावः, न चाभावो बाह्यवस्तुतयाऽव्य(ध्य)वसितत्वात् इति कथं 'यदि भावः स किं गौः' इत्यादि(दे) वपक्षभाविनः (७३-५) 'प्रेष-सम्प्रतिपत्त्योरभावः' इत्यादेवाभावपक्षभाविनो (७३-६) दोषस्यावकाशः ? अथ पृथक्त्वैकत्वादिलक्षणः कस्मान भवति ? व्यतिरेको(काs) व्यतिरेकाश्रिताऽनाश्रितत्वादिवस्तुगतधर्माणां कल्पनाशिल्पिघटितविग्रहेऽपोहेऽसम्भवात् । __यच्चोक्तम् - 'क्रियारूपत्वादपोहस्य विषयो वक्तव्यः' इति, (७३-९) तदसिद्धम् शब्दवाच्यस्यापोहस्य प्रतिबिम्बात्मकत्वात् । तच्च प्रतिबिम्बकमध्यवसितबाह्यवस्तुरूपत्वाद् न प्रतिषेधमात्रमः अत एव 'किं गोविषयः अथाऽगोविषय(त!): इत्यस्य (७३-९) विकल्पद्वयस्यानुपपत्तिः गोविषयत्वेनैव तस्य विधिरूपतयाऽध्यवसीयमानत्वात् ।।
यच्चोक्तम् - 'केन ह्यगोत्वमासक्तं गोर्येनैतदपोह्यते' इति, (७४-२) अत्रापि, यदि हि प्रा
और जो यह कहा था [पृ० ७३-१७] गोशब्द का अर्थ [जो 'अगो रूप नहीं', ऐसा पहले दिखाया है वह] भावात्मक है या अभावात्मक... इत्यादि, यहाँ अपोहवादी यह कहता है कि गोशब्दार्थ जिस प्रकार 'भ्रान्त लोगों के द्वारा बाह्यार्थ के रूप में अनुभूत होता है वैसा तो वह है नहीं क्योंकि [प्रतिबिम्बादिरूप] अपोह में बाह्यरूपता है ही नहीं अत: उसको भावात्मक [यानी बाह्यभावात्मक] नहीं मानते हैं। फिर भी वह बाह्यवस्तुरूप से भ्रान्त लोगों को अनुभूत होता है इसलिये अभावरूप भी नहीं हो सकता, क्योंकि जो तुच्छ है वह कभी अनुभूति का विषय नहीं हो सकता । तब जो पहले भावपक्ष में ये दोष बताये गये थे कि गोशब्दार्थ भावरूप होगा तो गोस्वरूप होगा या अगोस्वरूप ? यदि अगोस्वरूप कहते हैं तो आपके कौशल्य को धन्यवाद..... इत्यादि; तथा अभावपक्ष में जो दोष कहे गये थे कि अभावात्मक शब्दार्थ मानेंगे तो 'वक्ता के द्वारा श्रोता का किसी अर्थ में प्रेरण' रूप प्रैष और सम्प्रतिपत्ति [=श्रोता के द्वारा उसका अमल] इत्यादि नहीं घटेगा... ये उभयपक्ष के दोष अब कैसे सावकाश हो सकते हैं ?
प्रश्न :- गोआदि शब्द का पृथक्त्व या एकत्वादि अर्थ क्यों नहीं मान लेते ?
उत्तर :- पृथक्त्व यानी भेद और एकत्व यानी अभेद... तथा आश्रितत्व, अनाश्रितत्व आदि ये सब वस्तु के धर्म हैं, अवस्तुस्वरूप अपोह जो सिर्फ कल्पनारूप शिल्पी से ही बनाया गया है, उस में वस्तु के धर्मों का निवेश सम्भव नहीं है।
★ अपोह क्रियात्मक नहीं प्रतिबिम्बात्मक है* __पहले जो यह कहा था - अपोह निषेधक्रियारूप होने से गो उस का विषय है या अगो !... इत्यादि, यह सब निरर्थक है, चूंकि अपोहबाद में शब्दवाच्य अपोह क्रियारूप न हो कर प्रतिबिम्बात्मक है यह पहले ही कह दिया है । तथा प्रतिबिम्बात्मक अपोह बाह्य वस्तु का अध्यवसायी होने से निषेधात्मक हो नहीं सकता। फलत: 'वह गो का निषेध करता है या अगो का' ऐसे विकल्पयुगल को अवकाश ही नहीं है। कारण, प्रतिबिम्बात्मक अपोह गोविषयक होने से विधिरूप से ही बाह्यार्थ का अध्यवसायी है।
और भी जो यह कहा था - 'गोअर्थ में अगोत्व का प्रसंजन किसने किया था कि जिससे, गोशब्द
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