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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१२५ दिशब्दैर्व्यवच्छिद्यमानं स्फुटतरमवसीयते चेति नाऽव्यापिता शब्दार्थव्यवस्थायाः । एवं कुमारिलेनोक्तं दूषणं प्रतिविहितम् ।
इदानीमुद्दयोतकरेणोक्तं प्रतिविधीयते- तत्र यदुक्तम् 'सर्वशब्दस्य कश्चार्थो व्यवच्छेद्यः प्रकल्प्यते' इति, (७२-४) अत्रापि ज्ञेयादिपदवत् केवलस्य सर्वशब्दस्याऽप्रयोगात् वाक्यस्थस्यैव नित्यं प्रयोगः इति यदेव मूढमतेराशंकास्थानं तदेव निवर्त्यमस्ति । तथाहि- [त. सं. ११८५]
"सर्वे धर्मा निरात्मानः सर्वे वा पुरुषा गताः । सामस्त्यं गम्यते तत्र कश्चिदंशस्त्वपोह्यते ॥"
कोऽसावंशो योऽपोह्यतेऽत्र इति चेत् ? उच्यते - [त० सं० ११८६] "केचिदेव निरात्मानो बाह्या इष्टा घटादयः । गमनं कस्यचिच्चैव भ्रान्तैस्तद्विनिवर्त्यते ॥"
____ 'एकाद्यसर्वम्' इत्यादावपि (७२-६) यदि हि सर्वस्याङ्गस्य प्रतिषेधो वाक्यस्ये सर्वशब्दे विवक्षितः स्यात् तदा स्वार्थो[]पोहः प्रसज्यते यावता यदेव मूढधिया शंकितं तदेव निषिध्यते इति कुतः स्वार्थापवादित्वदोषप्रसंगः ? एवं द्वयादिशब्देष्वपि वाच्यम् ।
यह जो कहा था- “एवम्-इत्थम्' इत्यादि शब्दों का कोई अपोह्य ही नहीं है अत: अपोह शब्दार्थव्यवस्था का भंग होगा' - यह बात भी गलत है। कारण, 'एवम्' या 'इत्थम्' शब्द का अर्थ यह किया जाता है कि 'इस प्रकार का यह है, अन्य प्रकार का नहीं' । यहाँ 'एवम्' इत्यादि शब्दों से, आरोपित प्रकारान्तर का व्यवच्छेद अधिक स्पष्टरूप से ही अवगत होता है । अत: अपोह शब्दार्थ-व्यवस्था यहाँ भी व्यापक ही है ।
इस तरह - (पृ. ४३-३) नन्वन्यापोहकृच्छब्दो.... से लेकर 'इति न्यायात्' (पृ. ७२-२) पर्यन्त कुमारील ने जो अपोहवाद में दोषारोपण किया था उसका विस्तार से प्रतिकार पूरा हुआ।
★ उद्योतकर के आक्षेपों का प्रतिकार ★ अब उद्योतकर के कथन का प्रतिकार किया जाता है । उसने जो कहा था- 'सर्व' शब्द का व्यवच्छेद्य क्या मानेंगे ? इस का उत्तर पहले प्रमेय-ज्ञेयादि के बारे में जैसा हमने बताया है वही है कि केवल 'सर्व' शब्द के प्रयोग का कोई अर्थ नहीं होता, वाक्यान्तर्गत ही उसका हरहमेश प्रयोग किया जाता है । अत: मुग्धमति नर का जो आशंकित स्थान होता है वही 'सर्च' पद का निवर्त्य होता है । देखिये - (तत्त्वसंग्रह में कहा है-) 'सभी' धर्म आत्मविकल होते हैं- सभी पुरुष गये... इत्यादि में 'सभी' पद से समस्तभाव का अवगम होता है और कश्चिदंश यानी कुछ अंश का अपोह होता है ।
'वह कौनसा अंश है जिस का 'सभी' पद से अपोह होता है ?' इसका उत्तर यह है कि (तत्त्वसंग्रह में कहा है) यह भ्रान्ति ही सर्वपद का निवर्त्य है । [तात्पर्य, भ्रान्ति से आशंकित 'कुछ' पदार्थ 'सभी' पद का निवर्त्य है ।]
★ स्वार्थापवाद आदि दोषों का निराकरण★ पहले जो यह कहा था कि- “एकादि असर्ववस्तु का 'सर्व शब्द से अपोह मानेंगे तो उसमें 'सर्व' शब्द के अपने अर्थ का ही अपवाद = अपोह प्रसक्त होगा" - यहाँ भी अपोहवादी कहता है, वाक्यगत 'सर्व' शब्द के द्वारा यदि पूरे अंगों का निषेध किया जाय तब तो सर्वशब्द के वाच्यार्थ के अपोह की प्रसक्ति की बात ठीक है, लेकिन हम तो 'सर्व' शब्द से सिर्फ उसी अंग का निषेध करते हैं जो किसी मूढमति के द्वारा सर्वशब्द के अर्थरूप में आशंकित है, तब यहाँ स्वार्थापवादित्व की आपत्ति कहाँ हुयी ? 'द्वि' आदि शब्दों से भी इसी तरह मूढमति द्वारा शंकित अंग का निषेध मानने से कोई आपत्ति नहीं रहती।
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