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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कल्पितं यद् विवक्षितं नाऽवस्तु, तेन तत्प्रतीतौ सामर्थ्यादविवक्षितस्य व्यावृत्तिरधिगम्यत एवेति नाऽव्यापिणी शब्दार्थव्यवस्था । यदेव च मूढमतेराशंकास्थानं तदेवाधिकृत्योक्तमाचार्येण (७१-२) "(अ)ज्ञेयं कल्पितं कृत्वा तद्वयवच्छेदेन ज्ञेयेऽनुमानम्' [हेतु०- ] इति। 'ज्ञानाकारनिषेधाच्च' इत्यादौ (७१-८) ज्ञानाकारस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात् कथमभावः ? तथाहि - स्वप्नादिषु अर्थमन्तरेणापि निरालम्बनमगृहीतार्थाकारसमारोपकं ज्ञानमागोपालमतिस्फुटं स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धम् । न च देश-कालानन्तरावस्थितोऽर्थस्तेन रूपेण संवेद्यत इति युक्तं वक्तुम्, तस्य तद्रूपाभावात् । न चान्येन रूपेणान्यस्य संवेदनं युक्तम्, अतिप्रसंगात् । किञ्च, अवश्यं भवद्भिानस्यात्मगतः कश्चिद् विशेषोऽर्थकृतोऽभ्युपगन्तव्यः येन बोधरूपतासाम्येऽपि प्रति विषयं 'नीलस्येदं संवेदनम् न पीतस्य' इति विभागेन विभज्यते ज्ञानम् । तदभ्युपगमे च सामर्थ्यात् साकारमेव ज्ञानमभ्युपगतं स्यात् आकारव्यतिरेकेणान्यस्य स्वभावविशेषत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात्, अतो भवता 'स्वभावविशेषः' इति स एव शब्दान्तरेणोक्तः अस्माभिस्तु 'आकारः' इति केवलं नाम्नि विवादः ।
"एवमित्थम्' इत्यादावपि (७१-१०) 'एवमेतन्नैवम्' इति वा प्रकारान्तरमारोपितमेवम् इत्याही कल्पित की गयी है जो उस को विवक्षित होती है, अवस्तु कभी विवक्षित नहीं होती । अत: उक्त उपालम्भ निरर्थक है । विवक्षाके अनुसार जब विवक्षित वस्तु का भान होता है तब अर्थत: अविवक्षित वस्तु का व्यवच्छेद भी अवगत हो जाता है । अत: अपोह को शब्दार्थ मानने पर कहीं भी शब्दार्थव्यवस्था का भंग नहीं होता । हेतुमुखप्रकरणकार आचार्य ने भी, मुग्ध बुद्धिवाले लोगों को जिस की शब्दार्थरूप से आशंका पैदा हुयी हो उसको सामने रखकर कहा है कि- 'शब्दप्रयोग से पूर्वकल्पित (यानी शब्दार्थरूप से आशंकित) अज्ञेय के व्यवच्छेद करने द्वारा ज्ञेय वस्तु का अनुमान कराया जाता है।'
__ यह जो कहा था - 'आन्तरिक पदार्थ होने से ज्ञान का कोई आकार नहीं होता अत: उसका प्रतिपादन या व्यवच्छेद शब्द से शक्य नहीं'- यहाँ अपोहवादी प्रश्न करता है कि ज्ञानाकार जब अपने संवेदन से प्रत्यक्षसिद्ध है तब उसका निषेध कैसे ? देखिये - स्वप्न में किसी अश्वादि अर्थ के विना ही, अर्थरूप आलम्बन से शून्य होने पर भी मान लो कि अर्थ के आकार का समारोप ही ग्रहण कर लिया न हो - ऐसा ज्ञान अल्पज्ञ ग्वाल आदि को भी अत्यन्त स्पष्टरूप से होता है यह अपने अपने संवेदन से प्रत्यक्षसिद्ध बात है । यदि नैयायिकादि अन्यथाख्यातिवादी यहाँ ऐसा कहें कि 'स्वप्नज्ञान निरालम्बन नहीं होता, भिन्न देश-कालवत्ती' अश्वादि पदार्थ ही वहाँ तत्कालीन और तद्देशीयरूप से अनुभूत होता है'- तो यह अयुक्त है, क्योंकि भिन्न देशकालवर्ती अश्वादि में तत्कालीनत्व और तद्देशीयत्वस्वरूप की गन्ध भी नहीं है। जो रूप जिस में नहीं है, यदि उस रूप से भी उसका संवेदन मान्य किया जाय तब तो मनुष्यादि का गर्दभादिरूप से संवेदन..... इत्यादि बहु असमञ्जस मानना पडेगा।
दूसरी बात यह है कि सालम्बन ज्ञान में अर्थकृत कुछ न कुछ विशेष तो आप लोगों को भी मानना पडेगा जिस से कि ज्ञानरूपता समान होने पर भी विषयभेद होने पर ज्ञानों का ऐसा स्पष्ट विभाग किया जा सके कि 'यह ज्ञान पीत का है' और 'यह नील का' । जब ऐसे किसी विशेष को मानेंगे तब उसके फलस्वरूप ज्ञान की साकारता भी मान्य हो जायेगी । कारण, अर्थकृत स्वभावविशेष का, आकार के विना अन्य किसी रूप से पीछान कराना अशक्य है। यह तो शब्दभेदमात्र ही हुआ कि आप जिसको ‘स्वभावविशेष' कहते हैं हम उसको ही 'आकार' कहते हैं, अर्थभेद तो कुछ है नहीं, तब सिर्फ नाममात्र का विवाद रहा ।
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