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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१२३ अथ 'किमनित्यत्वेन शब्दाः प्रमेया इति आहोश्चिन' इति प्रस्तावे 'प्रमेयाः' इति प्रयोगे प्रकरणानभिज्ञस्यापि प्रतिपत्तुः 'प्रमेयाः' इति केवलं शब्दश्रवणात् प्लवमानरूपा शब्दादिबुद्धिरुपजायत एव । तद् यदि केवलस्य शब्दस्यार्थो नास्त्येव तत् कथमर्थप्रतिपत्तिर्भवति ? नैव केवलशब्दश्रवणादर्थप्रतिपतिः, किमिति(? किन्तु) वाक्येषूपलब्धस्यार्थवतः शब्दस्य सादृश्येनापहृतबुद्धेः केवलशब्दश्रवणादर्थप्रतिपत्यभिमानः । तथाहि - येष्वेव वाक्येषु 'प्रमेय' शब्दमुपलब्धवान् श्रोता तदर्थेष्वेव सा बुद्धिरप्रतिष्ठितार्था प्लवमानरूपा समुपजायते, तच्च घटादिशब्दानामपि तुल्यम् । तथाहि - ‘किं घटेनोदकमानयामि उताञ्जलिना' इति प्रयोगे प्रस्तावानभिज्ञस्य यावत्सु वाक्येषु तेन 'घटेन' इति प्रयोगो दृष्टस्तावत्स्वर्थेषु आकांक्षावती पूर्ववाक्यानुसारादेव प्रतिपत्तिर्भवतीति घटादिशब्दा (इव) विशिष्टार्थवचनाः प्रमेयादिशब्दाः । यदुक्तम् - 'अपोहकल्पनायां च' इत्यादि (७१-३), तत्र वस्त्वेव ह्यध्यवसायवशाच्छब्दार्थत्वेन
* स्वतन्त्र 'प्रमेय' शब्द का अर्थबोध कैसे ?* प्रश्न :- 'शब्द अनित्यत्वादिरूप से प्रमेय है या नहीं है' इस जिज्ञासा के समाधान में किसीने प्रमेय है ऐसा कह दिया । उस वक्त प्रकरणादि को (कौन से प्रश्न का यह उत्तर है- ऐसा कुछ भी) न जाननेवाला भी सिर्फ 'प्रमेय' ऐसा उत्तर सुनता है । सुनने के बाद उस को उस शब्द से अनिश्चयात्मक शब्दादिअर्थविषयक बुद्धि उत्पन्न होती है । यहाँ अपोहवादी को प्रश्न है कि जब स्वतन्त्र 'प्रमेय' शब्द का कोई अर्थ ही नहीं है तब प्रकरणादि न जानने वाले को जो केवल 'प्रमेय' शब्द से अर्थबोध होता है वह कैसे होता है ?
उत्तर :- वहाँ केवल 'प्रमेय' शब्द सुनने मात्र से अर्थबोध नहीं होता, किन्तु पूर्वकाल में सुने हुए, वाक्यान्तर्गत 'प्रमेय' शब्द के सादृश्य से यहाँ श्रोता की बुद्धि उपरञ्जित हो जाने के कारण, पूर्वश्रुत वाक्यान्तर्गत 'प्रमेय' शब्दजनित अर्थबोध के तुल्य अर्थबोध का, प्रस्तुत में केवल 'प्रमेय' शब्द सुनने पर अभिमान (भ्रम) हो जाता है। देखिये - श्रोताने पहले जिन वाक्यों में प्रमेय शब्द को सुन कर जिस अर्थ का अनुभव किया होता है, उन्हीं वाक्यों के अर्थों में, 'प्रमेय' शब्द का जो अर्थ बोध किया हो उसी अर्थ में अनिश्चयात्मक बुद्धि केवल 'प्रमेय' शब्द को सुन कर जाग्रत होती है । और ऐसा तो घटादिशब्दों के लिये भी हो सकता है तो 'प्रमेय' शब्द में क्या विशेषता ? देखिये- किसीने पूछा कि 'घटसे जल लाऊँ या अंजलि से' ? अब प्रस्तुत क्या है यह नहीं जाननेवाले श्रोता ने सिर्फ 'घट से' इतना ही सुना है । ऐसे श्रोता को 'घट से' इस पद से क्या भान होगा ? पहले जिन वाक्यों में उसने 'घट से' ऐसा पद सुना होगा, उन वाक्यों में, अन्यपदार्थों के साथ जिस प्रकार की अन्वयाकांक्षा से घटित 'घट से' इस पद से जैसा बोध हुआ होगा, वैसा ही बोध अभी उसको होता है । तात्पर्य, केवल घटादि शब्दों के श्रवण से, जैसे पूर्वानुभव के अनुसार विशिष्ट अर्थ का ही बोध होता है और तदन्य का अपोह होता है, उसी प्रकार केवल 'प्रमेय' आदि शब्दश्रवण से भी पूर्वानुभव के अनुसार विशिष्ट अर्थ का ही बोध होता है और तदन्य का अपोह होता है ।
* अपोहवाद में शब्दार्थव्यवस्था की व्यापकता* पहले जो यह कहा था कि अपोह्य की कल्पना करने की अपेक्षा तो वस्तु को ही शब्दार्थ मान लेना अच्छा है यहाँ अपोहवादी कहता है कि वक्ता के द्वारा पूर्व-पूर्वतर अध्यवसाय के प्रभाव से शब्दार्थरूप से वस्तु
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