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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ग्रहात् शब्दप्रयोगसाफल्यमिति वाक्यस्थस्यैवास्य प्रयोगः ।
अथ वाक्यस्थमेव ज्ञेयादिशब्दमधिकृत्योच्यते, तद् असिद्धम्, तत्र हि वाक्यस्थेन प्रमेयादिशब्देन यदेव मूढमतिभिः संशयस्थानमिष्यते तदेव निवर्त्यत इत्यतोऽसिद्धमेतत् 'प्रमेयादिशब्दानां निवत्यै नास्ति' इति; अन्यथा, यदि श्रोता न क्वचिदर्थे संशेत तत् किमिति परस्मादुपदेशमपेक्षते ? निश्चयार्थी हि परं पृच्छति अन्यथोन्मत्तः स्यात् । 'यदि नाम श्रोतुराशंकास्थानमस्ति तथापि शन्देन तन निवर्त्यते' इत्येतच्च न वक्तव्यम्, श्रोतृसंस्कारायैव शब्दानां प्रयोगात् तदसंस्कारकं वदतो वक्नुः - अन्यथा - उन्मत्तत्ताप्रसक्तिः । तथाहि - "किं क्षणिकाऽनात्मादिरूपेण ज्ञेया भावाः, आहोश्विन' 'किं सर्वज्ञचेतसा ग्राह्या उत न' इत्यादिसंशयोद्भूतौ 'क्षणिकत्वादिरूपेण ज्ञेयाः सर्वधर्माः' तथा 'सर्वज्ञज्ञानविज्ञेयाः' इति संशयव्युदासार्थ शब्दाः प्रयुज्यन्त इति । यदि(द)क्षणिकत्वाऽज्ञेयत्वादि समारोपितं तद् निवर्त्यते, क्षणिकत्वादिरूपेण तेषां प्रमाणसिद्धत्वात् । है, दूसरे किसी ढंग से अनुग्रह शक्य नहीं है। किन्तु अप्रमेय का कभी संशय और भ्रम किसी को होता नहीं है, अत: केवल 'प्रमेय' शब्द के प्रयोग से श्रोता को तथाविध अनुग्रह करना शक्य ही नहीं है । निष्कर्ष, संशयादि की निवृत्ति और निश्चय के उत्पादन के द्वारा श्रोता पर अनुग्रह करने से शब्दप्रयोग की सफलता होती है, जो केवल 'प्रमेय' शब्दप्रयोग करने से शक्य न होने के कारण वाक्य-अन्तर्गत ही उस का प्रयोग सार्थक होता है ।
___★ वाक्यस्थ प्रमेयादिशब्दों का निवर्त्य * दूसरे विकल्प में, वाक्यान्तर्गत 'प्रमेय' आदि शब्दों का कोई अपोह्य नहीं है - ऐसा यदि कहते हैं, तो वह असिद्ध है । कारण, मूढमतियों के द्वारा प्रमेयादि के बारे में जो कुछ संशयापन कर दिया गया हो वही उस का निवर्त्य होता है । (कैसे ? यह अभी कुछ पंक्ति के बाद बतायेंगे ।) यदि ऐसा न हो - श्रोता को उस के बारे में कुछ भी संशय ही न हो तो वह क्यों उसके बारे में वक्ता के कथन की अपेक्षा करेगा ? जिस को कुछ विषय में शंका हो और उस बारे में निश्चय की इच्छा हो वही दूसरे को पूछेगा, निश्चय की इच्छा के विना ऐसे ही पूछेगा तो लोग उसे पागल समझेंगे । ऐसा कहें कि- 'यद्यपि श्रोता को कुछ शंकास्थान जरूर हो सकता है किन्तु वक्ता के शब्दप्रयोग से उसकी निवृत्ति नहीं होती'- तो ऐसा कहना अनुचित है, क्योंकि कोई भी प्रबुद्ध वक्ता श्रोता को सत्य हकीकतों का संस्कार देने के लिये ही शब्दों का प्रयोग करता है । संस्कारप्रदानरूप प्रयोजन के विना ही वक्ता ऐसा कुछ बोल देगा जिस से श्रोता को कुछ भी संस्कार लाभ न हो- तो ऐसे वक्ता को भी लोग पागल मानेंगे। तात्पर्य. शंका स्थानरूप निवर्त्य की निवत्ति के लिये ही वक्ता शब्दप्रयोग करता है । प्रस्तुत में उदाहरणरूप से देखिये, किसी को ऐसी शंका है - 'पुद्रलादि भाव क्षणिकत्वरूप से या अनात्मत्वरूप से ज्ञेय है ? या नहीं है ?' अथवा ऐसी शंका है- 'वे पदार्थ सर्वज्ञज्ञान से ग्राह्य(=ज्ञेय) हैं ? या नहीं ?' इस प्रकार संशय होने पर, उस ज्ञेयत्वाभावरूप संशयारूढ निवर्त्य की निवृत्ति के लिये वक्ता ऐसा शब्दप्रयोग करता है कि 'सर्व धर्म (=पदार्थ) क्षणिकत्वादिरूप से ज्ञेय हैं । या 'सर्वज्ञज्ञान से विज्ञेय हैं । ऐसे वाक्यों में 'ज्ञेय' शब्द के प्रयोग से, श्रोता द्वारा वस्तु में आरोपित अक्षणिकत्व या अज्ञेयत्वादि संशयारूढ स्थानों की स्पष्टत: निवृत्ति हो जाती है, क्योंकि वस्तुमात्र क्षणिकत्वादिरूप से प्रमाणसिद्ध (=प्रमेय) है ।
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