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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ संवादो(स्येत्यसंवा)दकः। कस्मात् ! 'वस्तुसम्बन्धहानितः' = तथाभूतवस्तुसम्बन्धाभावात् पूर्वं हि जात्यादिलक्षणस्य शब्दार्थवस्तुनो निषिद्धत्वात् (३०-४)। यद्येवं तर्हि कथमन्यापोहशब्दादिभ्योऽपोहशब्दार्थनिषेधे मतिरुपजायत इति ? उच्यते, वितथविकल्पाभ्यासवासनाप्रभवतया हि केचन शाब्दाः प्रत्ययाः असद्भूतार्थनिवेशिनो जायन्त एव इति न तशाद् वस्तूनां सदसत्ता सिद्धयति ।
यच्च 'प्रमेय-ज्ञेयशब्दादेः' (७०-८) इति, अत्र कस्य प्रमेयादिशब्दस्यापोह्यं नास्तीत्यभिधीयते ! यदि तावदवाक्यस्थप्रमेयादिशब्दमाश्रित्योच्यते तदा सिद्धसाध्यता, केवलस्य प्रयोगाभावादेव निरर्थकत्वात् । यतः श्रोतृजनानुग्रहाय प्रेक्षावद्भिः शब्दः प्रयुज्यते न व्यसनितया, न च केवलेन प्रयुक्तेन श्रोतुः कश्चित् संदेह-विपर्यासनिवृत्तिलक्षणोनुग्रहः कृतो भवेत् । तथाहि - यदि श्रोतुः क्वचिदर्थे समुत्पन्नौ संशय-विप
सौ निवर्त्य निस्संदिग्धप्रत्ययमुत्पादयेत् प्रतिपादकः, एवं तेनानुग्रहः कृतो भवेद् नान्यथा । न च केवलेन शब्देन प्रयुक्तेन तथाऽनुग्रहः शक्यते कर्तुम्, तस्मात् संशयादिनिवर्त्तने निश्चयोत्पादने च श्रोतुरनुभी अर्थ का संवादक-वाचक नहीं है यानी अर्थशून्य है । उस का कारण यह है कि ऐसे शब्दों का किसी भी वस्तु के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं होता, जाति आदि को उस के अर्थरूप में ग्रहण करना अशक्य है क्योंकि शब्दार्थरूप से अभिप्रेत जाति आदि कोई वस्तु है ही नहीं, पहले ही उस का निषेध हो चुका है ।
प्रश्न : जब अनन्यापोह शब्द निरर्थक है तो उस से 'अपोहशब्दार्थ के निषेध' रूप अर्थ का भान कैसे होता है ?
उत्तर : कुछ शाब्दिक प्रतीतियाँ ऐसी होती है जो मिथ्या विकल्पों का अधिकतर अभ्यास पड जाने पर उस की वासना से उत्पन्न होने के कारण अपारमार्थिक अर्थों को अध्यवसित कर लेती हैं, लेकिन उन से किसी वस्तु का सत्त्व या असत्त्व सिद्ध नहीं हो सकता ।
★प्रमेय आदि शब्दों का वाक्यबाह्य प्रयोग नहीं★ तथा यह जो कहा था - वस्तुमात्र प्रमेयस्वरूप होने से 'प्रमेय' आदि शब्दों का कोई अपोह्य ही न होने से 'अपोह' उस का वाच्य नहीं बनेगा - यहाँ अपोहवादी कहता है कि १ 'प्रमेय' शब्द का वाक्य के बाहर ही स्वतन्त्र प्रयोग किया जाय तब की यह बात है या २ - वाक्य के अन्तर्गत उस का प्रयोग हो तब की ?
पहले विकल्प में, वाक्य-बहिर्भूत 'प्रमेय' शब्द को लेकर अगर आप उस के अपोह्य न होने की बात करते हैं, तो यहाँ सिद्धसाधन दोष है । कारण, जिस का कोई न कोई अपोह्य रहता है उसी शब्द का स्वतन्त्र प्रयोग होता है जैसे 'कमल' आदि शब्द, क्योंकि उस से अकमल आदि के बारे में उत्पन्न संशय या विपर्यास की निवृत्ति होती है। जिन के प्रयोग से किसी संशयादि की निवृत्ति नहीं होती, ऐसे 'प्रमेय' आदि शब्दों का स्वतन्त्ररूप से प्रयोग निरर्थक होने से कोई करता नहीं है । कारण, शिष्ट लोक सिर्फ शौख के लिये शब्दप्रयोग नहीं करते हैं किन्तु श्रोता को कुछ संशयादिनिवृत्तिस्वरूप बोधानुग्रह करने के लिये शब्दप्रयोग करते हैं । केवल 'प्रमेय' आदि शब्दप्रयोग करने से श्रोता को न तो कोई संशय दूर होता है, न कुछ भ्रम दूर होने का अनुग्रह होता है । देखिये, श्रोता को यदि किसी प्रमेय के बारे में अप्रमेय होने का संशय या भ्रम हुआ हो तो उस को दूर कर के असंदिग्ध प्रतीति कराने के लिये वक्ता प्रयत्न करे तो इस प्रकार ही श्रोता का अनुग्रह हो सकता
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