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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ऽस्ति, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तादृशस्यानुपलब्धेः पदार्थस्य चापोहरूपत्वं सिद्धमेव। तथाहि - 'चैत्र! गामानय' इत्यादिवाक्ये (७०-३) चैत्रादिपदार्थव्यतिरेकेण बुद्धौ नान्योऽर्थः परिवर्त्तते चैत्राद्यर्थगतौ च सामर्थ्याद् चैत्रादिव्यवच्छेदो गम्यते; अन्यथा यद्यन्यक;दिव्यवच्छेदो नाभीष्टः स्यात् तदा चैत्रादीनामुपादानमनर्थकमेव स्यात् । ततश्च न किञ्चित् कश्चिद् व्यवहरेदिति निरीहमेव जगत् स्यात् ।
___ 'अनन्यापोहशब्दादौ वाच्यं न च निरूप्यते' (७०-५) इति - अत्र; न पत्र भवदभिमतो जा- त्यादिलक्षणो विधिरूपः शब्दार्थः परमार्थतोऽवसीयते, जात्यादेनिषिद्धत्वात् । - [त० सं० ११६३]
"किन्तु विध्यवसाय्यस्माद् विकल्पो जायते ध्वनेः । पश्चादपोहब्दार्थनिषेधे जायते मतिः ॥ - यद्यनपोहशब्दादपोहशब्दार्थनिषेधे मतिर्जायते इतीष्यते न तहपोहशब्दार्थोऽभ्युपगन्तव्यः तस्य निषिद्धत्वात् - असदेतत्, (त० सं० ११६४)
"स त्वसंवादकस्ताम्बस्तुसम्बन्धहानितः । न शाब्दाः प्रत्ययाः सर्वे भूतार्थाध्यवसायिनः ॥
'सः' इति अनन्यापोहशब्दादिः, 'असंवादकः' इति न संवदतीत्यसंवादकः, न विद्यते त्रा(वा) जैसा कोई वाक्यार्थ है ही नहीं । अगर होता तो उपलब्धि योग्य होने से उस का उपलम्भ भी अवश्य होता, किन्तु नहीं होता है, अत: स्वतन्त्र वाक्यार्थ असिद्ध है । जब वाक्यार्थ पदार्थमय ही है तो पदार्थ को तो हमने अपोहरूप सिद्ध कर ही दिया है। देखिये - 'हे चैता ! गौ को ले आव' ऐसे वाक्य में चैता व्यक्ति, गौ आदि पदार्थों से भिन्न कोई वाक्यार्थ, बुद्धि में प्रतिबिम्बित नहीं होता । और 'चैता' आदि पदार्थ बुद्धिगत होने पर अर्थत: चैताभिन्न 'मैता' आदि का व्यवच्छेद भासता ही है । यदि वाक्यार्थ में प्रस्तुत कर्त्ता से भिन्न कर्ता आदि का व्यवच्छेद अभिप्रेत न होता तो 'चैता' कहने पर भी मैतादि का व्यवच्छेद इष्ट न होने से उन को भी गौ-आनयनादि के लिये प्रेरणा फलित हो जाती, फलत: वाक्यप्रयोग ही व्यर्थ हो जाने से कोई भी किसी पद-वाक्य का प्रयोग-व्यवहार ही कर नहीं पाता और जगत् अवाक् यानी विवक्षादि इच्छा से शून्य हो जाता ।
★ अनन्यापोहशब्द से अपोह के निषेध का भान* यह जो कहा था - 'अनन्यापोह' शब्द से अन्यापोह का निषेध होने से विधिरूप अर्थ ही वाच्य बनेगा, अन्यापोह वाच्य नहीं बन सकेगा - यहाँ अपोहवादी कहता है - जाति आदि का तो पहले निरसन हो गया है इस लिये परवादिमान्य जाति आदि विधिरूप अर्थ तो वास्तव में यहाँ ('अनन्यापोह' शब्द से) भासित हो नहीं सकता । तब क्या भासता है ? इस प्रश्न का उत्तर एक कारिका से यह दिया गया है कि "अनन्यापोह शब्द से सिर्फ (काल्पनिक) विधिरूप अर्थ को स्पर्श करने वाला (वस्तु-अस्पशी) विकल्प ही उत्पन्न होता है और उस के बाद 'यहाँ अपोह शब्दार्थ नहीं है। ऐसा निषेध ही (अनन्यापोह शब्द से) ज्ञात होता है ।" यदि शंका हो कि - यदि वहाँ 'अपोह शब्दार्थ नहीं है' ऐसी बुद्धि होती है तब तो अपोह को शब्दार्थ नहीं मानना चाहिये, क्योंकि उस का तो निषेध हुआ है। - तो यह शंका गलत है, इस का कारण एक कारिका से दिखाया गया है, उस की व्याख्या में उस कारिका के पदों का अर्थ ऐसा लिखा है - 'सः' यानी 'अन्यापोह' शब्द आदि । 'असंवादकः' शब्द का अर्थ दो तरह से कहा है -१ जो कुछ भी संवादन नहीं करता, अथवा २ जिस का किसी के साथ कुछ संवाद ही नहीं है । कारिका का तात्पर्यार्थ यह है कि 'अनन्यापोह' शब्द किसी
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