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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
११९ इत्यनेन पूरणार्थे 'यत्' प्रत्ययविधानात् ।' 'तद्विविक्कोऽसौ' इति औदासीन्यादिविविक्तः, “विधिवाक्येन सममन्यनिवर्त्तनम्' इति यथा 'पचति' इत्यादि विधिवाक्ये सामर्थ्यादौदासीन्यादिनिवृत्तिर्गम्यते तथा द्वितीयेऽपि नजि इति सिद्धमत्राप्यन्यनिवर्त्तनम् । स्पार्थ तु नञ्चतुष्टयोदाहरणम् । (११८-८)
'चादीनां नज्योगो नास्ति' (६९-७) इत्यत्र - [त० सं० का० ११५८] "समुच्चयादिर्यश्वार्थः कश्चिच्चादेरभीप्सितः । तदन्यस्य विकल्पादेर्भवेत् तेन व्यपोहनम् ॥"
आदिशब्देन 'वा'शब्दस्य विकल्पोऽर्थः 'अपि'शब्दस्य पदार्थाऽ(?र्थ)सम्भावनाऽन्ववसर्गादयः, 'तु' शब्दस्य विशेषणम्, एवकारस्यावधारणमित्यादर्ग्रहणम् । 'तदन्यस्य' इति तस्मात् समुज्वयादन्यस्य, 'तेन' इति चादिना ।
'वाक्यार्थेऽन्यनिवृत्तिश्च व्यपदेष्टुं न शक्यते' इति (६९-७) अत्रापि कार्यकारणभावेन सम्बद्धा एव पदार्था वाक्यार्थः, यतो न पदार्थव्यतिरिक्तो निरवयवः शबलात्मा वा कल्माषवर्णप्रख्यो वाक्यार्थी
(यहाँ जो तत्त्वसंग्रह की दो कारिकाओं का उद्धरण है उन कारिकाओं के कुछ पदों का व्याख्याकार अर्थनिरूपण करते हुए कहते हैं कि) दूसरी कारिका में 'तुर्य' पद है उस का अर्थ है 'चौथे नकार का प्रयोग करने पर'; क्योंकि यहाँ 'चतुरश्छचतौ आद्यक्षरलोपश्च' इस पाणिनिसूत्र के वार्त्तिक के अनुसार पूरण अर्थ में 'य' प्रत्यय है और आदि अक्षर 'च' का लोप किया गया है । तथा, कारिका में 'तद्विविक्तोऽसौ' इस अंश का मतलब यह है कि 'निष्क्रियतादि से विपरीत' । तथा 'विधिवाक्येन सममन्यनिवर्त्तनम्' इस वाक्य का मतलब यह है कि जैसे 'पकाता है' इस विधिवाक्य से अर्थत: निष्क्रियता का निषेध बुद्धिगत होता है वैसे ही दो नकारप्रयोग से भी अन्य का निषेध अर्थत: बुद्धिगत हो जाता है । यद्यपि यहाँ दो नकार के दिखलाने से ही काम चल सकता है फिर भी स्पष्टता के लिये चार नकार को उदाहरण किया है ।
★ 'च' आदि अव्ययों से अर्थतः अपोह का भान ★ पहले जो यह कहा था - 'च -वा' आदि अव्ययों के साथ कभी नकार का अन्वय न होने से उन अव्ययों से अपोह का निरूपण शक्य नहीं - यहाँ अपोहवादी कहता है कि - "चादि अव्ययों का जो समुच्चयादि अभिप्रेत अर्थ हैं उन के प्रतिपादन के साथ ही विकल्पादि का अपोह अर्थत: हो जाता है ।" [तात्पर्य, समुच्चय को जताने के लिये जब 'च' का प्रयोग होता है तब यह सूचित होता है कि 'राम: लक्ष्मणश्च' यहाँ 'राम और लक्ष्मण' का समुच्चय लेना है, 'राम या लक्ष्मण' ऐसा विकल्प अभिप्रेत नहीं है ।]
यहाँ ग्रन्थकारने जो तत्त्वसंग्रह की कारिका उल्लेखित की है उस के कुछ पदों का विवरण इस प्रकार है - 'चादि' में 'आदि' पद से 'वा' 'अपि' 'तु' और एवकार आदि का ग्रहण है। 'वा' का अर्थ है विकल्प । 'अपि' शब्द का पदार्थसम्भावना, अन्ववसर्ग-प्रश्न इत्यादि अर्थ है । 'तु' शब्द का विशेषण अर्थ है । एवकार का अवधारण अर्थ है । कारिका में जो 'तदन्यस्य' है उसका अर्थ है समुच्चय से अन्य । 'तेन' पद का अर्थ है चादि अव्ययों के द्वारा।
तथा, यह जो पहले कहा था - पूरे वाक्य से विचित्रस्वरूप वाक्यार्थ का ही प्रतिपादन होता है, अपोह का निरूपण वाक्य से अशक्य है - यहाँ अपोहवादी कहता है - वाक्यार्थ क्या है ? कार्य-कारणभाव से सम्बद्ध अनेक पदार्थ ही वाक्यार्थ होता है । पदार्थरूप अवयवों से भिन्न स्वतन्त्र निरवयव वैविध्यउपरञ्जित कल्माषवर्ण
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