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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तथापोहोऽपि वस्तुभिस्तुल्यधर्मतया ख्याते(तो) निष्पन इव प्रतीयते इति सिद्धं 'निष्पनत्वात्' इति वचनम्" । यद्येवं भवत्यै(तै)व साध्य(त्व)प्रत्ययस्य भूतादिप्रत्ययस्य च निमित्तमुपदर्शितमिति न वक्तव्यमेतत् 'निर्निमित्तं प्रसज्यते' (६९-४) इति ।
यद्यपि 'विध्यादावर्थराशौ च नान्यापोहनिरूपणम्' इति (६९-४) परेणोक्तम् तत्र विध्यादे- रर्थस्य निषेध्यादपि व्यावृत्ततयाऽवस्थितत्वात् तत्प्रतिपत्तौ सामर्थ्यादविवक्षितं नास्तितादि निषिध्यत इत्य- स्त्येवात्र 'अन्यापोहनिरूपणम्' ।
'नञश्चापि नत्रा युक्ती....' (६९-५) इत्यत्रापि [तत्त्वसंग्रहे का० ११५६-५७] "नासौ न पचतीत्युक्ते गम्यते पचतीति हि । औदासीन्यादियोगश्च तृतीये नजि गम्यते ॥ तुर्ये तु तद्विविक्तोऽसौ पचतीत्यवसीयते । तेनात्र विधिवाक्येन सममन्यनिवर्त्तनम् ॥"
'तुर्ये' इति चतुर्थे 'चतुरश्छ्यतौ आद्यक्षरलोपश्च' [पाणिनी-५-२-५१ वार्त्तिक सिद्धान्त. पृ० २९९] जूठी ख्याति हो गई है । (और उस जूठी ख्याति में वह 'सिद्ध' होने से उसमें साध्यत्व का निषेध करते हैं)" किन्तु यह बात अच्छी नहीं है । कारण मान लो कि वह सोपाख्यरूप से ख्यात है, तो भी आप की प्रस्तुत बात को उस से क्या समर्थन मिला ? इस प्रश्न का यदि ऐसा उत्तर हो कि "सोपाख्यरूप से ख्यात होने के कारण वह वस्तु का समानधर्मी, यानी वस्तु जैसा ही हो गया । जब वह वस्तुतुल्य ही प्रसिद्ध हुआ तो हम जो उस में साध्यत्व का निषेध कर के निष्पन्नत्व (= सिद्धत्व) का निरूपण करते हैं वह संगत सिद्ध हुआ ।" अहो ! इस जवाब से तो आपने ही साध्यत्वप्रत्यय और भूत-भविष्यत् आदि प्रत्यय (=प्रतीति) का स्पष्ट निमित्त पेश कर दिया । मतलब, ‘पचति' पद प्रयोग के पहले जो पचनभिन्न क्रियाओं का अपोह साध्यबाह्य था उस को आपने साध्यत्व कोटि में लाने के लिये वस्तुतुल्यत्वरूप निमित्त स्पष्ट कर दिया । इस लिये अब आप ऐसा नहीं कह सकते कि - "साध्यत्वबोधक और भूत-भविष्यादिकाल बोधक 'ति, स्यति' आदि प्रत्यय असंगत हैं।" क्योंकि अब तो अपोह वस्तुतुल्य हो जाने के कारण 'ति' आदि प्रत्ययों के द्वारा साध्यत्वप्रतीति की उपपत्ति हो सकती है।
★ विधि आदि में भी अन्यापोह का निरूपण ★ __ पहले जो यह कहा था (पृ०) - विधि-आमन्त्रण आदि अर्थराशि के प्रतिपादक वाक्य से अन्यापोह का प्रतिपादन नहीं होता - यहाँ अपोहवादी कहता है, विधि आदि अर्थ निषेध्य आदि अर्थों से व्यावृत्तरूप से ही विद्यमान होते हैं, अत: विधि आदि अर्थ का अवबोध होने पर, अर्थत: उन का निषेध हो जाता है जो नास्तित्वादि निषेध्य अर्थ विवक्षित नहीं रहते । इस प्रकार यहाँ अन्यापोह का प्रतिपादन निर्बाध है।
पहले जो कहा था कि एक नकार का दूसरे नकार के साथ प्रयोग होने पर, दो निषेध मिल कर विधि का ही प्रतिपादन करते हैं, उस वक्त अपोह का निरूपण नहीं होता - यहाँ अपोहवादी कहता है - "यह नहीं पकाता ऐसा नहीं' ऐसा कहने पर 'पकाता है। ऐसी प्रतीति होती है, अगर इस में तीसरा नकार डाल दे तो 'निष्क्रिय है (पकाता नहीं)' ऐसी बुद्धि होती है। अगर उसमें चौथा नकार डाल दे तो निष्क्रिय से विपरीत यानी 'पकाता है' ऐसा भान होता है । इस प्रकार निषेधद्वययुक्त वाक्य से भी विधिवाक्य के समान ही अन्य (औदासीन्यादि की) व्यावृत्ति का बोध होता है, नहीं होता ऐसा नहीं है ।"
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