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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
११७ "तथाहि - पचतीत्युक्त नोदासीनोऽवतिष्ठते । भुंक्त दीव्यति वा नेति गम्यतेऽत्यनिवर्त्तनम् ॥" [त० सं० ११४५]
तेन 'पर्युदासरूपं हि निषेध्यं तत्र न विद्यते' इति उक्तं (६८-४) तदसिद्धम् । यच्च 'पचतीत्यनिषिद्धं तु स्वरूपेणैव तिष्ठति' इति - तत्र स्ववचनव्याघातः । तथाहि - 'पचति' इत्येतस्यार्थ 'स्वरूपेणैव' इत्यनेनावधारणेनावधारितरूपं दर्शयता 'पचति' इत्येतस्यान्यरूपनिषेधेनात्मस्थितिरिति दर्शितं भवति, अन्यथा ‘स्वरूपेणैव' इत्येतदवधारणं भवत्प्रयुक्तमनर्थकं स्यात् व्यवच्छेद्याभावात् ।
"साध्यत्वप्रत्ययश्च" इति (६९-१) अत्रापि यद्यपोहो भवता निरुपाख्यस्वभावतया गृहीतस्तकथमिदमुच्यते 'निष्पन्नत्वात्' इति (६९-३) ? न ह्याकाशोत्पलादीनां काचिदस्ति निष्पत्तिः, सोपाख्याविरहलक्षणत्वात् तेषाम् । स्यादेतत् - "यद्यप्यसौ निरुपाख्यः परमार्थतस्तथापि भ्रान्तैः प्र. तिपत्तृभिर्बाह्यरूपतयाऽध्यवसितत्वादसौ सोपाख्यात्वेन ख्याति ।' ननु यद्यसौ सोपाख्यात्वेन ख्याति त. थापि किमत्र प्रकृतार्थानुकूलं जातम् ? "वस्तुभिस्तुल्यधर्मत्वम्, एतेन यथा वस्तु निष्पन्नरूपं प्रतीयते पर इस प्रकार अन्यव्यवच्छेद बुद्धिगत होता है कि वह पकानेवाला निष्क्रिय खडा नहीं रहा है, न खाता है, न क्रीडा करता है (किन्तु पकाता है)" (का० ११४५)
उपरोक्त वक्तव्य से अब यह कथन भी असिद्ध फलित होता है जो पहले कहा गया था कि - ‘पचति' इत्यादि में पर्युदासरूप निषेध्य विद्यमान नहीं है" - असिद्ध इसलिये कि उपरोक्त रीति से भोजन आदि रूप पर्युदास निषेध्य निर्विवाद सिद्ध है।
___ तथा इसी प्रसंग में जो यह कहा था कि “पचति' ऐसा सुनने पर निषेधविहीन सिर्फ स्वरूप से ही पाकक्रिया का बोध होता है" - इस कथन में तो स्पष्ट ही वदतो व्याधात है, क्योंकि यहाँ 'पचति' का अर्थ विवेचन करता हुआ परवादी ‘स्वरूप से ही' इस प्रकार जो अवधारण कर के 'पचति' का अवधारित (= अन्यव्यावृत्त) अर्थ दीखाता है तब अवधारण के रूप में अन्य भोजनादिक्रिया के निषेधपूर्वक ही पाकक्रिया रूप आत्मीय अर्थ का निर्देश करता है। यदि यह मान्य नहीं करेंगे तो 'स्वरूप से ही' इस प्रकार परवादीप्रयुक्त अवधारण निरर्थक ठहरेगा क्योंकि आप के मत में वहाँ कोई व्यवच्छेद्य तो है ही नहीं ।
★ अपोह में साध्यत्व प्रतीति का उपपादन★ पहले अपोहविरोधीने जो यह कहा था – ‘पचति' इत्यादिमें साध्यत्व की प्रतीति होती है.....(पृ.) इत्यादि - उसके सामने अपोहवादी कहता है कि अपोह को निरुपाख्य तुच्छ स्वभाव समझ कर आप उस में साध्यत्व का जब निषेध करते हो तो फिर ऐसा क्यों कहते थे कि 'अपोह तो निष्पन्न (सिद्ध) ही है उसमें साधने का (= साध्यत्व) कुछ भी शेष नहीं है ?' [मतलब यह है कि जब आप अपोह को तुच्छ समझते हैं तो फिर उस को सिद्ध (= निष्पन्न) कैसे कहते हैं ?] आकाशकुसुमादि असत् (तुच्छ) पदार्थों की निष्पत्ति कहीं भी नहीं होती है क्योंकि तुच्छ तो किसी भी सार्थक उपाख्या (= संज्ञा) से शून्य होता है । आप को दिल में ऐसा होगा कि - "हालाँ कि अपोह वास्तव में तो निरुपाख्य (=उपाख्यारहित) ही होता है किन्तु भ्रान्त लोगोंने उसको बाह्यपदार्थरूप से अध्यवसित कर रखा है इसलिये उस की 'सोपाख्य' (= उपाख्या विशिष्ट) रूप से
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